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नियुक्तिपंचक नियुक्ति-गाथा के क्रम में रखा है। जैसे-दशनि गा. १-७, ११, १०६-१३, उनि गा. ६५, सूनि गा. ५१-५३ आदि।
कहीं-कहीं टीकाकार ने गाथा के संबंध में कुछ निर्देश न भी दिया हो तो भी कुछ गाथाओं को केवल प्रकाशित टीका और हस्तप्रतियों के आधार पर नियुक्ति के क्रम में स्वीकार किया है जैसे दशनि गा. ९३ । गा. ९३ विषय की दृष्टि से गा. ९४ से संबद्ध है। इसको नियुक्ति-गाथा के क्रम में नहीं रखते से विषयक्रम में असंबद्धता का अनुभव होता है। कहीं-कहीं स्पष्ट प्रतीत हो रहा था कि चूर्णिकार द्वारा गाथा का संकेत छूट गया है अथवा गाथा को सरल समझकर उसकी व्याख्या नहीं की गयी है। जैसे दशनि १४५, ३०५ । लेकिन कहीं-कहीं हस्तप्रतियों और टीका में संकेतित तथा चूर्णि में अनुल्लिखित और अव्याख्यात गाथाओं को विषय-वस्तु की असंबद्धता और व्याख्यापरकता के आधार पर नियुक्ति-गाथा के कम में नहीं भी जोड़ा है जैसे दशनि गा. २४०/१, ३०७/१, ३१५/१।
८. चूर्णि में नियुक्ति के क्रम में प्रकाशित गाथा को भी कहीं-कहीं हमने नियुक्ति के क्रम में नहीं रखा है। इसका कारण है विषय-वस्तु एवं भाषा-शैली की भिन्नता। जैसे—दशनि गा. २११/१ को आचार्य हरिभद्र ने वृद्धास्तु व्याचक्षते' उल्लेखपूर्वक उद्धृत गाथा के रूप में रखा है। यह गाथा चूर्णिकार द्वारा रचित है अथवा काय के प्रसंग में पहेली के रूप में बाद के किसी आचार्य द्वारा जोड़ी गयी है। इसे मूल क्रमांक में न रखने पर भी चालू विषय-वस्तु के क्रम में कोई अंतर नहीं आता है।
९. दशवैकालिकनियुक्ति की कुछ गाथाओं का संकेत जिनदास चूर्णि में है किन्तु अगस्त्यसिंह चूर्णि में नहीं है। ऐसी गाथाओं को जिनदास चूर्णि एवं हारिभद्रीय टीका के आधार पर नियुक्ति-गाथा के कम में रखा है। जैसे गा. २६-३० इन पांच गाथाओं के बारे में अगस्त्यसिंह चूर्णि में कोई उल्लेख नहीं है लेकिन आचार्य जिनदास ने 'अज्झप्पस्साणयणं गाहाओ पंच भाणियव्वाओं का उल्लेख किया है।
१०. कहीं-कहीं अन्य नियुक्तियों की भाषा-शैली के आधार पर भी नियुक्ति-गाथा का निर्धारण किया है। जैसे दशवैकालिकनियुक्ति की २४ वी गाथा चूर्णि में उपलब्ध होने पर भी मुनि पुण्यविजयजी ने इसे उपसंहारात्मक एवं संपूर्ति रूप मानकर नियुक्ति-गाथा के क्रम में नहीं रखा है लेकिन हमने उत्तराध्ययन नियुक्ति (गा.२७) की भाषा-शैली के आधार पर इसे नियुक्तिगाथा के क्रम में रखा है।
११. दशवैकालिकनियुक्ति की ३३ वीं गाथा अगस्त्यसिंह चूर्णि में नियुक्ति के क्रम में नहीं है। पंडित दलसुखभाई मालवणिया का अभिमत है कि चूर्णि में पुष्प के एकार्थक शब्दों के आधार पर हरिभद्र ने इसे पद्यबद्ध कर दिया। पर यह संभव नहीं लगता क्योंकि यदि वे स्वयं इस गाथा को बनाते तो 'पुष्पैकार्थिकप्रतिपादनायाह' ऐसा उल्लेख नहीं करते। इसके नियुक्ति-गाथा होने का दूसरा हेतु यह भी है कि प्रथम अध्ययन का नाम दुमपुफियं है अत: द्रुम शब्द के एकार्थक के पश्चात् पुष्प के एकार्थक यहां प्रासंगिक हैं। सभी हस्तप्रतियों में भी यह गाथा मिलती है।
१२. टीकाकार ने जिस गाथा को भिन्नकर्तृकी के रूप में स्वीकार किया है, उसे भी विषय की संबद्धता एवं चूर्णि के आधार पर नियुक्ति-गाथा के क्रम में रखा है, जैसे दशनि गा. १०५ ।
१३. कहीं-कहीं एक ही कथा का भाव पुनरुक्ति के साथ दो गाथाओं में मिलता है। वहां यह संभव लगता है कि चूर्णि की कथा के आधार पर कथा की स्पष्टता के लिए बाद में गाथा जोड़ दी गयी क्योंकि
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