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नियुक्ति साहित्य : एक पर्यवेक्षण टीका में ३७२ नियुक्ति-गाथाएं हैं, जबकि प्रकाशित अगस्त्यसिंहचूर्णि में मात्र २७१ नियुक्ति-गाथाएं ही हैं। जिनदासचूर्णि में गाथाओं का केवल संकेत मात्र है अत: उसमें गाथाओं के व्यवस्थित कमांक नहीं हैं। हमारे द्वारा संपादित दशवैकालिकनियुक्ति में ३४९ गाथाएं हैं। गाथा-संख्या में इतना अंतर कैसे आया तथा व्याख्याकारों में इतना मतभेद कैसे रहा? यह ऐतिहासिक दृष्टि से शोध का विषय है। गाथा भाष्य की होनी चाहिए या नियुक्ति की, यह निर्णय प्राय: प्राचीनता की दृष्टि से चूर्णिकार को आधार मानकर किया गया है। अनेक भाष्य गाथाओं को तर्कसंगत प्रमाण देकर नियुक्ति गाथा के क्रम में रखा है तथा अनेक नियुक्ति गाथाओं को भाष्यगाथा के रूप में भी सिद्ध किया है।
कुछ नियुक्ति-गाथाएं भी मूलसूत्र के साथ मिल गयी हैं, जैसे-वयछक्क.....(दशनि २४४) गाथा दशवैकालिक के छठे अध्ययन में भी मिलती है। इसी प्रकार उत्तराध्ययननियुक्ति (गा. २४९) की 'जहा लाभो तहा लोभो' गाथा कालान्तर में उत्तराध्ययन सूत्र के साथ जुड़ गई। सम्मिश्रण का एक कारण स्मृति-दोष भी रहा होगा क्योंकि मूलसूत्र के साथ नियुक्ति भी कंठस्थ होने से कहीं-कहीं गाथाओं में विपर्यय हो गया। व्याख्याग्रंथों की गाथाओं का मूलसूत्र के साथ तथा नियुक्ति की गाथाओं का भाष्य के साथ सम्मिश्रण इतना सहज हो गया है कि उनका पृथक्करण करना अत्यंत जटिल कार्य है।
गाथाओं में अंतर रहने का एक कारण यह भी बना कि अनेक स्थलों पर चूर्णिकार ने गाथा को सरल समझकर उसका उल्लेख नहीं किया। जिनदासचूर्णि में अनेक स्थलों पर तिण्णि गाहाओ भाणियव्वाओ, सुगम चेव' का उल्लेख मिलता है। कहीं-कहीं गाथा की व्याख्या होने पर भी उसका संकेत नहीं दिया गया है। संभव है लिपिकर्ताओं द्वारा संकेत लिखना छूट गया हो।
दशवैकालिकनियुक्ति एवं उसके भाष्य की गाथाओं का सही-सही निर्णय करना अत्यंत कठिन कार्य था क्योंकि हरिभद्र द्वारा मान्य कुछ भाष्य गाथाओं को स्थविर अगस्त्यसिंह ने अपनी चूर्णि में नियुक्ति-गाथा माना है। इसके अतिरिक्त हरिभद्र की प्रकाशित टीका में जिन गाथाओं के आगे 'भाष्यम्' का उल्लेख है, वह भी अनेक स्थलों पर सम्यक् प्रतीत नहीं होता। अनेक नियुक्ति गाथाओं के आगे भी 'भाष्यम्' का उल्लेख है तथा कहीं-कहीं भाष्य की गाथाओं को भी नियुक्ति गाथा के क्रम में जोड़ दिया है। हरिभद्र ने अपनी टीका में भाष्य गाथा के लिए 'आह' भाष्यकार:' ऐसा संकेत प्राय: नहीं दिया है।
निर्युक्ति-गाथा के संपादन-काल में अनेक चिंतन के बिंदु उभरकर सामने आए, जिनके आधार पर हमने गाथाओं के बारे में निर्णय लिया है कि यह प्राचीन होनी चाहिए या प्रक्षिप्त. भाष्यगाथा होनी चाहिए अथवा नियुक्तिगाथा। यद्यपि गहन चिंतन-मनन के बाद भाष्य और नियुक्ति की गाथाओं का पथककरण किया गया है फिर भी इसे अंतिम प्रमाण नहीं कहा जा सकता। प्रकाशित होने पर अनेक गाथाओं के बारे में स्पष्ट अनुभूति हुई कि ये गाथाएं प्रक्षिप्त होनी चाहिए। लेकिन प्रकाशित होने के बाद उनके क्रम में अंतर करना संभव नहीं था अत: यहां कुछ गाथाओं के बारे में विमर्श प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है,साथ ही गाथा-संख्या के निर्धारण में प्रयुक्त मुख्य बिंदुओं को भी प्रस्तुत किया जा रहा है
१. किसी गाथा के लिए जहां चूर्णिकार ने 'एत्थ निज्जुत्तिगाहा' का उल्लेख किया है, वहां
१.उ.८/१७। Jain Education International
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