Book Title: Nandanvan Kalpataru 2001 00 SrNo 06
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

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Page 14
________________ यः स्वीचकार जडचेतनमूलरूपम्, तस्मिन् कदापि न च यो निकूतिं चकार । यं सत्यवादिनमहं हृदये स्मरामि, तं वर्धमानमिह वीरमहं भजामि ॥ १४ ॥ सिद्धार्थराजतनयाय महाजिनाय, वीराय जैनविभवे त्रिशलासुताय, जैनप्रवर्तक वराय मुनीश्वराय, तस्मै नमो भगवते महते जिनाय ॥१५ ॥ राजस्तदङ्गनृपतेर्दधिवाहनस्य पुत्र्या मुदाऽक्रियत चन्दनबालयाऽत्र । यस्याऽतिकष्टतपसो व्रतपारणा हि वीरं धरामि तमहं हृदये महान्तम् ॥१६॥ साऽऽसीच्च तज्जनकशत्रुकूता हि दासी तद्धस्तभोजनमवाप्य समुद्धृता या । दासीप्रथा तदनु येन विनाशितेह वीरं स्मरामि तमहं त्रिशलात्मजातम् ॥१७॥ तस्यै प्रदत्त इह येन समाजमानः, साध्वी हि साधुमहिलाप्रमुखा कृता सा । स्त्रीसाधुसङ्घमपि यः कृतवान् समाजे, पूज्यं तमेमि शरणं मुनिवर्धमानम् ॥ १८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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