Book Title: Nandanvan Kalpataru 2001 00 SrNo 06
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti
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ताथरतातः
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विजयशीलचन्द्रसूरिः
(छन्दः शिखरिणी) कदाऽहं सिद्धाद्रौ भव-भुवनधिद्वीपसदृशे, सुरक्षन्नात्मानं कलुषविषयग्राहनिवहात् ।
अभीकः सन् दुष्टान्मकरनिकरात् क्रोधप्रमुखाद् - वसामि स्वामिन् ! ते मधुरतमनामस्मृतिपः ॥ १ ॥
कदाऽहं दाहं मे विषमविषयाग्निप्रजनितं, स्थितं चित्ते, सिध्दाचलतिलक ! हे नाथ ! भगवन् ! ।
वीवर्तिष्यामि त्वदभिधसुधाशीतलरस - च्छटाभिः सेसिञ्चन्नखिलमपि शक्तः शमयितुम् ॥२॥
युगादीशस्याऽस्मिन् विमलगिरिराजे शिवकरे, विराजन्तीं मूर्तिं विहितभविस्फूर्तिमनिशम् ।
प्रपश्यत् साफल्यं मम न यनयुग्मस्य भगवन् ! कदाऽहं कुर्वे त्वच्चरणशरणो दोषहरण ! ॥ ३ ॥
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