Book Title: Nandanvan Kalpataru 2001 00 SrNo 06
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

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Page 19
________________ क्दाऽहं स्वात्मानं मलिनभवगादयदयात्समुद्धर्तुं स्वामिन् ! निखिलखिलनाशिन् ! जिनवर ! । श्रयिष्ये श्रीसिद्धाचलसुगिरिनिःश्रेणिममलां, समारोहायाऽस्मिन्निव विरचितां मुक्ति निलये ॥ ४ ॥ कदाऽहं तीर्थशे प्रमरमणीये क्षितितले, युगादीशध्याने निहितनिजचेता अविरतम् । अशेष मुक्त्वाऽथो विषयजनितोपाधिविसरं, प्रवत्स्यामि स्वामिन् ! भवभवभयत्रायक ! विभो ! ॥५॥ पवित्रेऽत्र क्षेत्र विमलगिरिसन्नामनि जनिं, त्वदीयप्रासादे शशिविशद ! नाभेय ! भगवन् ! । समायातैः संधैस्तव गुणनुतिर्या प्रविहिता, क्दाऽहं शृण्वन् तां सफलमखिलं नाथ ! विदधे ॥ ६॥ अज्ञानी यत् कृतं कर्म क्षिपेत् वत्सरकोटिभिः । तज्ज्ञानी गुप्तिसम्पूर्णः क्षिपेदुच्छ्वासमात्रतः ॥ (श्रीमल्लिनाथमहाकाव्ये) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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