Book Title: Nandanvan Kalpataru 2001 00 SrNo 06
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

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Page 26
________________ सदा दक्षा रक्षाकरणविषये शासनतरोः पुनर्मायाच्छायारहितहृदया दीनशरणाः । भवाम्भोधौ बोधौ विहिततरचित्ताश्च चतुराः सुकौशल्याः शल्यादलनकरणे नेमिगुरवः ॥२३॥ लभेयं लोकेऽस्मिन्नतिविततदुःखैर्विदलिते कथङ्कारं सारं जिनविहितधर्मं परमहम् । असौ नो चेच्चेतोवरतरविशुद्धिप्रणिदधो जयत्येक श्लोकः स तु विजयनेमिर्यतिपतिः ॥ २४ ॥ तपागच्छे स्वच्छे वरविजयनेम्याह्वयगुरोः प्रतापाच्च व्यापात् समशशिसमस्फूर्तिकलितात् । सुवैराग्यैर्भाग्यैरिति च रचना रातु रचिता सदा दान्ति शान्तिं दलिततमसां दीर्घदृशिनाम् ॥ २५ ॥ Jain Education International वैराग्यविंशतिरिति स्फुटमेव विज्ञैर्वाच्या विभेदकरणी हरणी मदस्य । यस्मात् भवेऽत्र भविनां भवनाशिनीयं वैराग्यवासितविशिष्टविभूतिभाजाम् ॥ २६ ॥ ( वसन्ततिलका) ॥ इति श्रीमत्तपागच्छाचार्य-चारित्रचूडामणिवर्यचरणचञ्चरीकायमाणप्रवर्तक यशोविजयविरचिता वैराग्यविंशतिः समाप्ता ॥ coka৩ १७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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