Book Title: Nammala Author(s): Dhananjay Mahakavi, Shambhunath Tripathi Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 8
________________ नाममाला कोति को भी नमस्कार किया है। इन्होंने अन्य के बीच में जहां आवश्यकता भी नहीं है वहाँ भी अपमा नाम देने में संकोच नहीं किया है। कई स्थानों पर धनजय के इलोकों की उत्थानिका में भी "सम्प्रति मनुष्यवर्ग आरभ्यसे अमरकीर्तिना" (पृ. १३) आदि लिखा है। जो स्पष्टतः श्रम उत्पन्न करता है। एक जगह तो धनञ्जय के इस डोका की पाया करते ए स्वयं अपना ही. नाम लिख दिया है--"शारिधिर्वर्ण्यतेऽधुना। अधुना हदानी धारिषिवर्यते कथ्यते । केन भाष्यका श्रीमदमरकीतिना। स्पष्टतया यहां 'कन का उत्तर धनञ्जयेन' होना चाहिए था। अमरकीति नाम के तीन विद्वानों का पता लगता है :(१) 'छक्कममोवएस' आदि ग्रन्थों के रचयिता अमरकोति'। इन्होंने वि० सं० १२४७ भावों भुधी १४ के दिन यकस्मोषएस ग्रन्थ समाप्त किया था । अर्थात् ये ईसवीय १२ वों सदी के अन्तिम भाग और तेरहवों के प्रारम्भ में विद्यमान थे। ये अमितगति आचार्य की परम्परा में हुए हैं। इनकी गुरु परम्परा यह है :-अमितगति, शान्तिर्षण, अमरसैन, श्रीषेण, चन्द्रकीति और चन्यकीति के शिष्य अमरकोति।। (२) वर्धमान के प्रगुरु अमरकोति । इनको परम्परा इस प्रकार है....देवेन्द्र विशालकीति, शुभफीति, धर्मभूषण, अमरकीति,.....धर्मभूषण वधमान । वर्धमान ने शक संवत् १२९५ वैशाख सुदी ३ बुधवार को धर्मभूषण की निषधा मनवाई थी। इस शिलालेख के अनुसार अमरकीर्ति का समय शक १२५० के आसपास सिद्ध होता है। ये ईसवीय १४वीं सदी के विद्वान थे। इनके इस समय का समर्थन शक १३०७ में उत्कीर्घ वि जयनगर के शिलालेख से भी होता है। (३) दशभक्त्यादि महाशास्त्र के रचयिता वर्षमान के समकालीन, विद्यानन्द के पुत्र विशालकीर्ति के सधर्मा अमरकोप्ति । इनके सम्बन्ध में दशभक्रयाविशास्त्र में लिखा है :-- "जीयादमरकीरित्यभट्टारकविरोमणिः । विशालकीतियोगीन्द्रसधर्मा शास्त्रकोविदः ।। अमरकीतिमुनिर्विमलाशयः कुसुमचापमदाचलवज्रभृत् । जिनमतापहृतारितमाश्च यो जयति निमंलधर्मगुणाश्रयः ॥" अर्थात् शास्त्रकोविध विमलाशय कामजेता निर्मलगुण और धर्म के आश्रय तथा जिनमतके प्रकाशक अमरफीति भट्टारक विशालकोति के सर्मा थे। विशालकीति के पिता विद्यानन्द का स्वर्गवास शक १४०३ सन् १४८१ में हुआ था। यह उल्लेख दशभक्त्यादि महाशास्त्र में विद्यमान है। अतः उनके पुत्र विशालकीति के सधर्मा अमरकोति का समय करीब सन् १४५० अर्थात् ईसवीय १५ वौं शताब्दी सिद्ध होता है । दाभस्यादि शास्त्र का समाप्तिकाल १४०४ शक अर्थात् १४८२ ई० है। १. देखो डा. हीरालाल का 'अमरकीतिगणि और उनका पट्कर्मोपदेश' लेख । जैन मि. भास्कर भाग २ अंक ३। २. जैन शिलालेख संग्रहका ११वां शिलालेख । ३. प्रशस्तिसंग्रह के सम्पादक पं० के० भुजबली शास्त्री ने 'शाके वहिखराब्धिचन्द्रकलिते संवत्सरे का अर्थ शक १४६३ किया है। जब कि दशभक्त्यादि शास्त्र की समाप्ति सूचक 'शाके बंदख राधिचन्द्रकलिते' का अर्थ १४०४ शक किया है। दोनों जगह ख का शून्प लेना चाहिये। यदि दाभबत्यादि शास्त्र' शत्रः १४०४ में समाप्त हुआ है तो उसमें शक १४६३ में हुई विद्यानन्द की मृत्यु की चर्चा कैसे आ सकती है ? ४. देखो प्रशस्तिसंग्रह, १.० १२८ ।Page Navigation
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