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श्री जिनचन्द्र मुनिवर ने मालाकार की तरह, मूलश्रुत
[३.] रूप उद्यान से श्रेष्ठ वचन-कुसुमों का उच्चुंटन कर, अपने श्रीजिनपतिसूरिजी द्वारा विक्रम की तेरहवीं शताब्दी में मतिगुण से दृढ़ गुंथन करके विविध अर्थ-सौरभ-भरपूर यह रचित पंचलिंगी-विवरण सं० में प्रशंसा की है किआराधनामाला रची है।
"नर्तयितुं संवेगं पुनर्नृणां लुप्तनृत्यमिव कलिना । इसके पीछे मैंने वहाँ सूचन किया है कि "पाश्चा- संवेगरङ्गशाला येन विशाला व्यरचि रुचिरा ॥" त्यैरनेकैनन्थकारैरस्यः कृतेः संस्मरणमकारि ।" इसका भावार्थ:--जिसने (श्री जिन चन्द्रसूरिजी ने), कलिकाल भावार्थ यह है कि-इस संवेगरंगशाला कृति का संस्मरण, से जिसका नृत्य लुप्त हो गया था, वैसे मानो मनुष्यों के पीछे होनेवाले अनेक ग्रन्थकारों ने किया है। इसका संवेग को नृत्य कराने के लिए विशाल मनोहर संवेगरंगशाला समर्थन करने के लिए मैंने वहां (१) गुणचन्द्रगण का रची ।।
[४] महावीरचरित, (२) जिनदत्तसूरि का गणधरसार्धशतक,
_ विक्रम संवत् १२६५ में सुमतिगणि ने गणधरसार्धशतक (३) जिनपतिसूरि का पंचलिंगीविवरण (४) सुमतिगणि की ।
की सं० बृहद्वृत्ति में उल्लेख किया है कि-- गणधरसार्धशतक वृत्ति, (५) संघपुर मन्दिर-शिलालेख, (६)
"पश्चाजिनचन्द्रसूरिवर आसीद् यस्याष्टादशनाम माला चन्द्रतिलक उपाध्याय का अभयकुमार चरित तथा (७) भुवन
सूत्रतोऽर्थतश्च मनस्यासन् सर्वशास्त्रविदः । येनाष्टा(?) हित उपाध्याय के राजगृह-शिलालेख में से-अवतरण टिप्पणी
दशसहस्रप्रमाणा संवेगरङ्गशाला मोक्षप्रासादपदवी में दर्शाये थे, वे इस प्रकार हैं -
भव्यजन्तूनां कृता । येन जावालिपुरे दू(ग)तेन श्रावकाणामने श्रीगुणचन्द्र गणि ने विक्रम संवत् ११३६ में रचित प्राकृत व्याख्यानं 'चोवंदणमावस्सय' इत्यादि गाथायाः कुर्वता महावीरचरित में प्रशंसा की है कि
सिद्धान्तसंवादाः कथितास्ते सर्वे सुशिष्येण लिखिताः शतश्रयसंवेगरंगसाला न केवलं कवविरयणा जेण । प्रमाणो दिनचर्यानन्थः श्राद्धानामुपकारी जातः ।" भवजणविम्हय करी विहिया संजम-पवित्ती वि ॥"
[-यह पाठ मैंने बड़ौदा-जनज्ञानमन्दिर-स्थित भावार्थ:- जिसने (श्री जिनचन्द्रसूरि ने ) सिर्फ संवेग- श्रीहंसविजयजी मुनिराज के संग्रह की अर्वाचीन ह० लि. रंगशाला काव्य-रचना ही नहीं की, भव्यजनों को विस्मय प्रति से उद्धृत कर दर्शाया था ] करानेवाली संयमप्रवृत्ति भी की थी।
___ भावार्थ:-पीछे (श्रीजिनेश्वरसूरि और बुद्धिसागरसूरि _[२]
के अनन्तर ) श्री जिनचन्द्र सूरिवर हुए। सर्वशास्त्रविद् श्रीजिनदत्तसरिजी ने विक्रम की बारहवीं शताब्दी. जिसके मन में - नाममाला
जिसके मन में १८ नाममालाएँ सूत्र से और अर्थ से उपस्थित उत्तरार्ध में रचित प्रागणधरसार्धशतक में प्रशंसा की है
थीं। जिसने दस हजार गाथा प्रमाण सवेगरंगशाला
, कि
भव्यजीवों के लिए मोक्ष प्रासाद-पदवी की। जावालिपूर संवेगरंगसाला विसालसालोवमा कया जेण। में गए हुए जिसने श्रावकों के आगे 'चीवंदणमावरसय' रागाइवेरिभयभीय - भव्वजण रक्खण निमित्तं ॥"
इत्यादि गाथा का व्याख्यान करते हुए सिद्धान्त के संवाद भावार्थ:-जिसने (श्री जिनचन्द्रसूरिजी ने ) रागादि कहे थे, उन सबको सुशिष्य ने लिख लिए, तीन सौ वैरियों से भयभीत भव्यजनों के रक्षण-निमित्त विशाल
श्लोक-प्रमाण 'दिनचर्या' नामक ग्रन्थ श्रावकों के लिए किला ओ संवेगरंगशाला की।
उपकारी हो गया।
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