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3. इस सर्व विरति एवं देशविरति धर्म की प्राप्ति के लिये नींव की भूमिका रूपी मार्गानुसारी . के पैंतीस गुणों का जीवन में आदर पूर्वक आचरण।
इन गुणों को विकसित करने के लिये जीवन के दृष्टिकोण में परिवर्तन लाना आवश्यक है, अनिवार्य है।
सृष्टि में परिवर्तन करना हमारे बस की बात नहीं है, परन्तु सृष्टि के प्रति अपना दृष्टिकोण बदलना यह अवश्य ही हमारे बस की बात है।
समस्त गाँव को घुमाया नहीं जा सकता, परन्तु बैलगाड़ी अवश्य घुमाई जा सकती है।
सम्पूर्ण नगर को बुहार कर स्वच्छ करना संभव नहीं है, परन्तु अपने घर का कूड़ा-कर्कट तो स्वच्छ किया ही जा सकता है न?
कण्टकों से आच्छादित समस्त पथ को कण्टक-विहीन कर डालना सम्भव नहीं है, परन्तु काँटों से बचने के लिये अपने पाँवों में तो जूते पहने जा सकते हैं न?
साँय-साँय करके चलने वाले भयानक तूफान से घर को बचाने के लिये आँधी-तूफान का शमन करना तो सम्भव नहीं है, परन्तु घर की खिड़कियों और द्वारों को तो पूर्णत: बन्द करके हम अपने घर को सुरक्षित अवश्य रख सकते हैं।
दृष्टिकोण में परिवर्तन करने के लिये जीवन में पैंतीस गुणों पर यथाशक्ति आचरण करना अत्यन्त अनिवार्य है, परन्तु उन गुणों की प्राप्ति के लिये जीवन में पात्रता की भी अनिवार्य आवश्यकता है। पौद्गलिक सुखों के साधनों की प्राप्ति में ही सुख और उनकी अप्राप्ति में ही दुःख" - इस दृष्टिकोण का परित्याग करना अत्यन्त आवश्यक है। तथा मुझे जीवन में ये सद्गुण प्राप्त करने ही हैं, ये मुझे अत्यन्त प्रिय हैं। इनके लिये मुझे समस्त भोगों का बलिदान देना पड़े तो भी मैं तत्पर हूँ।" इस प्रकार की दृढ़ मान्यता रूपी पात्रता का हम अपने भीतर विकास करें।
तो.... पैंतीस गुण हमारे जीवन को नन्दन-वन बना देंगे। इन गुणों की सौरभ स्व-जीवन को ही नहीं, आपके आश्रितों को एवं आपसे परिचित एवं आपके सम्पर्क में आनेवाले प्रत्येक पुण्यात्मा को ज्योर्तिमय करेंगे, परम पद के पथ में एक पुण्य प्रकाशमय पाद मार्ग की लीक बनायेंगे।
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