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पवचन-१
झलक मिल जाए, उसका एक स्मरणं हो जाए कि ऐसा भी हुआ है, ऐसा भी किसी व्यक्ति में होता है। ऐसा भी सम्भव है। यह सम्भावनाओं का बोध तत्काल हमें अपने प्रति जगा देता है कि जो किसी एक में सम्भव है, जो एक मनुष्य में सम्भव है, वह फिर मेरो सम्भावना क्यों न बने ? और तब हम पूजा में न जायेंगे बल्कि एक अन्तर् पीड़ा, एक इनर सरिंग में उतर जायेंगे। जैसे जले हुए दिये को देख कर एक बुझा हुआ दिया एक आत्मपीड़ा में उतर जाए और उसे लगे कि मैं व्यर्थ हूं, मैं सिर्फ नाम मात्र का दिया हूं क्योंकि वह ज्योति कहां, वह प्रकाश कहां? मैं सिर्फ अवसर हैं जिसमें ज्योति प्रगट हो सकतो है, लेकिन अभी हुई नहीं है। लेकिन बुझे हुए दियों के बीच बुझा हुआ दिया रखा रहे तो उसे ख्याल भी न आए, पता भी न चले। तो करोड़ बुझे हुए दियों के बीच में भी जो स्मरण नहीं पा सकता वह एक जले हुए दिये के निकट आ सकता है। __ महावीर, या बुद्ध, या कृष्ण का मेरे लिए इससे ज्यादा कोई प्रयोजन नहीं कि वे जले हुए दिये हैं, और उनका ख्याल उनके जले हुए दिये की लपट एक बार भो हमारी आंखों में पहुँच जाए तो हम फिर वही आदमी नहीं हो सकते जो हम कल तक थे, क्योंकि हमारी एक नई सम्भावना का द्वार खुल गया; जो हमें पता ही नहीं था कि हम हो सकते हैं उसकी प्यास जग गई। यह प्यास जग जाए तो कोई भी बहाना बनता हो, इससे कोई प्रयोजन नहीं । तो मैं महावीर को भी, क्राइस्ट को भी बहाना बनाऊंगा, कृष्ण को भी, बुद्ध को भी, लाओत्से को भी।
फिर हममें बहुत तरह के लोग हैं। और. कई बार ऐसा होता है कि जिसे लाओत्से में ज्योति दिख सकती है, हो सकता है उसे बद्ध में ज्योति न दिखे। और यह भी हो सकता है कि जिसे महावीर में ज्योति दिख सकती है उसे लाओत्से में ज्योति न दिखे। एक बार अपनी ही ज्योति दिख जाए तब तो लाओत्से, बुद्ध का मामला हो नहीं, तव तो सड़क पर चलते साधारण आदमी में भी ज्योति दिखने लगती है। तब फिर ऐसा आदमो ही नहीं दिखता जिसमें ज्योति न हो। तब तो आदमी बहुत दूर की बात है पशुपक्षी में वही ज्योति दिखने लगती है। पशु-पक्षी भी बहुत दूर की बात है, पत्थर में भी वह ज्योति दिखने लगती है। एक बार अपने में दिख जाए तो सब में दिखने लगती है। लेकिन, जब तक स्वयं में नहीं दिखी तब तक जरूरी नहीं कि सभी लोगों को महावीर में ज्योति दिखे। उसके कारण है । व्यक्ति.