________________
गाथा है-१० ]
लब्धिसार
[ {
कर्माशिक के सातवें नरकमें चरमसमय में होता है । क्षपितकर्माशिकके दसवें गुरास्थानके अन्तिमसमय में मोहनीयकर्म का और. १२वे गुणस्थानके चरमसमय में तीनघातिया कर्मोंका जघन्य प्रदेशत्व है। विशेष जानने के लिए ध. पु. १० देखना चाहिए। स्वामित्वसम्बन्धी उपर्युक्त कथनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उत्कृष्टस्थितिबन्ध व उत्कृष्टस्थिति अनुभाग व प्रदेशसत्त्व उत्कृष्टसंक्लेशपरिणामी मिथ्यादृष्टिजीवके होता है जिसके उत्कृष्टसंक्लेशके कारण प्रथमोपशमसम्यक्त्व उत्पन्न नहीं हो सकता तथा जघन्यस्थितिबन्ध व जघन्य स्थिति - अनुभाग- प्रदेशसत्त्व क्षपक रिग में होता है वहांपर तो क्षायिकसम्यक्त्व होता है ।
अब आगे प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुखजीवके स्थितिबंधपरिणामोंकी कहते हैं
सम्मतमुद्दमिच्छविसोहिवड्डीद्दि वडमाणो हु । अंतोकोडा कोडिं सतराई बंधणं कुणदी ॥६॥
अर्थ - विशुद्धिकी वृद्धिद्वारा वर्धमान तथा प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टिजीव सातकर्मो का अन्तः कोड़ा कोड़ी सागरप्रमाण स्थितिबन्ध करता है ।
विशेषार्थ - प्रथमोपशमसम्यक्त्व के प्रभिमुख सभी मिथ्यादृष्टिजीव एककोड़ाकोड़ीसागर के भीतरकी स्थिति अर्थात् अन्तःकोड़ाकोड़ीसागरोपमको बांधता है, इससे बाहर अर्थात् अधिकस्थितिको नहीं बांधता' । कहा भी है- स्थितिबन्ध भी इन्हीं अर्थात् बंधनेवाली प्रकृतियोंका अन्तः कोड़ाकोड़ीसाग रोपमप्रमारण ही होता है, क्योंकि यह अर्थात् प्रथमोपशमसम्यक्त्वके प्रभिमुखजीव विशुद्धतरपरिणामोंसे युक्त होता है ' ।
प्रथानन्तर प्रायोग्यलब्धिकाल में प्रकृतिबंधापस रणको कहते हैंतत्तो उदधिसदस् य पुधत्तमेतं पुणो पुयोदरिय । बंधम्मि पडि बंधुच्छेदपदा होंति चोचीसा ॥ १० ॥
अर्थ — उससे अर्थात् अन्तःकोड़ाकोड़ीसागर स्थितिसे पृथक्त्व सौ सागरहीन
स्थितिको बांधकर पुनः पुनः पृथक्त्व १०० सागर घटाकर स्थितिबन्ध करनेपर प्रकृति
बन्ध व्युच्छित्ति के ३४ स्थान होते हैं ।
१. ध. पु. ६ पृ. १३५ ।
२.
ज. ध. पु. १२ पृ. २१३ ।