Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray Author(s): Abhaykumar Jain Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 12
________________ अध्याय भूमिका यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि प्रत्येक प्राणी दुःख से छूटकर सुख प्राप्त करना चाहता है। तीर्थंकर भगवन्तों की दिव्य-देशना का मूल प्रयोजन भी प्राणियों को दुःख से मुक्ति का मार्ग बताना ही है। पण्डितप्रवर दौलतरामजी ने इसी तथ्य का उल्लेख करते हुए छहढ़ाला की रचना की है। प्रथम ढाल के प्रारम्भ में ही वे लिखते हैं : जे त्रिभुवन में जीव अनन्त सुख चाहें दुःखतें भयवन्त । तातें दुःखहारी सुखकार कहें सीख गुरु करुणाधार ॥ यह जीव अनादिकाल से पञ्च परावर्तन करता हुआ अनन्त दुःख उठा रहा है। भव-परावर्तन करते हुए यह अनन्त भव धारण कर चुका है। यद्यपि यह अनन्त बार द्रव्यलिंग धारण करके नवमें ग्रैवेयक में जन्म धारण कर चुका है, तथापि इसे मुक्ति का मार्ग प्राप्त नहीं हुआ। दो हजार सागर से कुछ अधिक की उत्कृष्ट स्थिति लेकर यह अनन्त बार त्रस हुआ, जिसमें 740 सागर नरक में और 1260 सागर स्वर्ग में बिताने का उल्लेख भी शास्त्रों में आता है। अतः यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि अनन्त बार स्वर्ग में जन्म लेने के लिए इस जीव ने तदनुकूल शुभभाव और बाह्यधर्माचरण भी अवश्य किया होगा, अन्यथा इसे नवमें ग्रैवेयक जैसा भव कैसे मिलता ? 1. धवला पुस्तक 9 पृष्ठ 298, त्रस राशि की अन्तर प्ररूपणा, उद्धरण क्रमांक 124-125 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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