Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray Author(s): Abhaykumar Jain Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 96
________________ सम्यक् चारित्र के लिए किए गए विपरीत प्रयत्नों के सन्दर्भ में ... में विपरीतता सहित महाव्रतादिरूप आचरण होने पर भी उसे अणुव्रती तथा अविरत-सम्यग्दृष्टि से भी हीन कहा है, क्योंकि उनका पाँचवा और चौथा गुणस्थान है और इसका पहला गुणस्थान है। यहाँ यदि परिणामों की अपेक्षा विचार किया जाए तो द्रव्यलिंगी मुनि को कषायों की प्रवृत्ति थोड़ी है, तथा अविरति और देशव्रती को कषायों की प्रवृत्ति अधिक है। यही कारण है कि द्रव्यलिंगी मुनि नवमें ग्रैवेयक तक जाते है; जबकि अविरति और देशव्रती सोलहवें स्वर्ग तक ही जाते हैं। 87 द्रव्यलिंगी को महामन्द- कषाय तथा अव्रत सम्यग्दृष्टि और देशव्रती को उसकी अपेक्षा तीव्र - कषाय होने पर भी उसे इन दोनों से भी हीन बताया गया है; क्योंकि कषायों की प्रवृत्ति होने पर भी सम्यग्दृष्टि के श्रद्धान में किसी भी कषाय को करने का अभिप्राय नहीं है; जबकि द्रव्यलिंगी को शुभकषाय करने का अभिप्राय पाया जाता है और वह श्रद्धान में उन्हें भला जानता है। इसलिए श्रद्धान की अपेक्षा इसे असंयत - सम्यग्दृष्टि से भी अधिक कषाय है। प्रश्न :- यदि द्रव्यलिंगी को कषाय करने का अभिप्राय है तो वह नवमें ग्रैवेयक तक कैसे जाता है ? उत्तर :- पुण्य और पाप का भेद अघातिकर्मों में होता है, तथा शुभ या अशुभ योग के अनुसार पुण्य या पाप का बन्ध होता है । द्रव्यलिंगी को शुभरूप योगों की प्रवृत्ति बहुत होती है, इसलिए वह अन्तिम ग्रैवेयक तक भी चला जाता है; परन्तु उससे उसे कोई लाभ नही होता; क्योंकि अघातियाकर्म आत्मगुण के घातक नहीं हैं। गोत्रकर्म के उदय से उच्चपद या नीचपद प्राप्त किया तो क्या हुआ ? वे तो मात्र बाह्य - संयोग हैं, संसारदशा के स्वांग हैं; अतः आत्मा को इनमे कोई लाभ-हानि नहीं हैं । प्रश्न :- घाति कर्म तो आत्मगुणों के घात में निमित्त हैं, द्रव्यलिंगी मुनि को उनका बन्ध किसप्रकार होता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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