Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 103
________________ क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन दर्शन - ज्ञान ही बिगड़ा हुआ अभिप्राय है; जिसकी चर्चा जिनागम में मिथ्यात्व के रूप में की गई है। प्रयोजनभूत तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान ही सुधरा हुआ अर्थात् सम्यक् अभिप्राय है; जिसकी चर्चा सम्यक्त्व के रूप में जिनागम में उपलब्ध है। 94 प्रश्न :- आपने मोक्षमार्ग प्रकाशक के सातवें अधिकार के आधार पर ही अभिप्राय की व्याख्या की है। इसके अतिरिक्त इस विषय का वर्णन और कहाँ उपलब्ध है ? उत्तर : चारों अनुयोगों में वीतरागता का पोषण करते हुए वस्तुस्वरूप का वर्णन है, अतः सभी अनुयोग प्रत्यक्ष या परोक्षरूप से अभिप्राय को सम्यक् बनाने का कथन करते हैं। जिनागम के प्रत्येक प्रकरण की यथार्थ समझ सम्यक्-अभिप्राय की पोषक है। विशेषरूप से द्रव्यानुयोग में अज्ञानी की मान्यता अथवा मिथ्यात्व के रूप में मिथ्या - अभिप्राय का तथा ज्ञानी की मान्यता अथवा तत्त्वों के प्रतिपादन के रूप में सम्यक् - अभिप्राय का ही वर्णन है । समयसारादि पञ्च परमागम में सम्यग्दर्शन और उसके विषय का ही विभिन्न अपेक्षाओं से वर्णन किया गया है। नियमसार में वर्णित पूजित, पञ्चम, परमपारिणामिकभाव तथा समयसार की प्रतिपाद्य वस्तु नवतत्त्वों में छुपी हुई आत्मज्योति.... इत्यादि सभी प्रकरण सम्यग्दर्शन अर्थात् यथार्थ अभिप्राय के लिए ही हैं। मोक्षमार्ग प्रकाशक के चौथे से सातवें अधिकार में मिथ्या-अभिप्राय का विस्तृत वर्णन करके उस पर सशक्त प्रहार किया गया है। आठवें और नवमें अधिकार में अभिप्राय को सम्यक् बनाने का उपाय बताया गया है। योगसार, परमात्मप्रकाश, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पुरुषार्थसिद्धयुपाय आदि सभी ग्रन्थ वस्तु-स्वरूप का प्रतिपादन करके मिथ्यात्व का नाश करने के लिए ही लिखे गए हैं । तत्त्वार्थसूत्रादि आगमग्रन्थ भी व्यवहारनय के द्वारा वस्तु का पारमार्थिक स्वरूप बताते हैं । न्याय शैली में लिखे गए सभी ग्रन्थ भी एकान्तमत का खण्डन करके सर्वज्ञप्रणीत अनेकान्त शासन की विजय पताका फहराते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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