Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 104
________________ 95 सम्यक्चारित्र के लिए किए गए विपरीत प्रयत्नों के सन्दर्भ में ... ____95 ___इस युग में आध्यात्मिक सत्पुरुष पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामी ने 45 वर्षों तक मिथ्यात्व के विरुद्ध क्रान्ति का शंखनाद करके अभिप्राय में परिवर्तन अर्थात् सम्यग्दर्शन का ही सन्देश दिया है। उनके प्रवचनों को गम्भीरता से सुनकर और पढ़कर हम भी अभिप्राय की विपरीतता दूर करने का सच्चा पुरुषार्थ कर सकते हैं। प्रश्न :- अभिप्राय की यथार्थता के लिए आत्मा का निर्णय किस प्रकार होना चाहिए ? उत्तर :- सर्वप्रथम अपनी वर्तमान ज्ञानपर्याय में जीवादितत्त्वों का यथार्थ निर्णय होना चाहिए। जिनागम में वर्णित द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नयों अथवा निश्चय और व्यवहार नयों के द्वारा सामान्य विशेषात्मक पदार्थ का यथार्थ निर्णय करने के पश्चात् दृष्टि अर्थात् श्रद्धा का विषयभूत एक, अखण्ड, सामान्यरूप ज्ञायकभाव ही मैं हूँ - ऐसी दृष्टि होना चाहिए। इस प्रकार श्रद्धा और ज्ञान स्वरूप सन्मुख होने पर निर्विकल्प आत्मध्यान प्रगट होता है, जिसके फल में सम्यग्दर्शन-ज्ञान प्रगट होते हैं और क्रमशः चारित्र में वृद्धि होते हुए मोक्ष फल प्रगट होता है। प्रश्न :- क्या शास्त्राभ्यास करने से ऐसी दृष्टि हो सकती है ? उत्तर :- भाई ! यथार्थदृष्टि या द्रव्यदृष्टि तो वस्तु-स्वरूप को यथार्थ समझने से होती है। शास्त्राभ्यास भी तत्त्वनिर्णय का बाह्य साधन है। यदि नय-विवक्षा न समझकर विपरीत दृष्टि से शास्त्राभ्यास करे तो विपरीत निर्णय होने से विपरीत अभिप्राय ही पुष्ट होता है। द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि मुनि को भी 11 अंग 9 पूर्व तक का ज्ञान हो जाता है, परन्तु उसकी दृष्टि विपरीत ही रहती है, इसलिए अपने मूल प्रयोजन की मुख्यता से यथार्थ दृष्टि की प्रधानता रखकर शास्त्राभ्यास करना चाहिए। प्रश्न :- यथार्थ दृष्टि की प्रधानता से क्या आशय है ? उत्तर :- यथार्थ दृष्टि की प्रधानता अर्थात् ज्ञायकस्वभाव की प्रधानता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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