Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray Author(s): Abhaykumar Jain Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 99
________________ क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन उसीप्रकार आप सम्यक्त्व गुण सहित है, परन्तु जो व्यवहारधर्म में प्रधान हो उसे व्यवहारधर्म की अपेक्षा गुणाधिक मानकर उसकी भक्ति करता है - ऐसा जानना । " 90 उक्त कथन से स्पष्ट होता है कि सम्यग्दर्शन - ज्ञान बिना सम्यक् चारित्र नहीं होता, अतः सम्यग्दर्शन- ज्ञान प्रगट करने के लिए अभिप्राय की भूल मिटाना जरूरी है और अभिप्राय की भूल स्पष्ट करने के लिए द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि मुनि के स्वरूप का वर्णन किया गया है। अतः यहाँ उसकी निन्दा का आशय ग्रहण नहीं करना चाहिए । प्रश्न :- आप भले निन्दा न कहें, परन्तु हम तो इसे निन्दा ही समझेंगे? उत्तर :- भाई ! यदि निन्दा ही समझना हो तो अपनी स्वयं की निन्दा समझना, दूसरों की नहीं; क्योंकि अपना भला-बुरा तो अपने परिणामों से होता है । अपने भी पहले अनन्तबार द्रव्यलिंग धारण करके भी विपरीत अभिप्राय का नाश नहीं किया, अतः अभी तक संसार में भ्रमण कर रहे हैं । अतः अपने विपरीत अभिप्राय की न केवल निन्दा करना चाहिए, अपितु वस्तु का यथार्थ स्वरूप समझकर उसे अतिशीघ्र छोड़ देना चाहिए। दूसरी बात यह भी है कि यहाँ द्रव्यलिंगी मुनि किसी व्यक्ति विशेष का परिचायक नहीं है। यह भूल तो हम आप सभी कर रहे हैं । अतः यह सैद्धान्तिक निरूपण है, व्यक्तिगत नहीं । - यह पहले भी कहा जा चुका है कि दूसरों का मूल्यांकन उनकी बाह्यक्रिया से करना चाहिए, परन्तु अपना स्वयं का मूल्यांकन अपने परिणाम और अभिप्राय से करना चाहिए; मात्र बाह्य क्रिया से नहीं। दूसरों की मात्र क्रिया ही दिखती है और परिणाम तो क्षण-क्षण में बदलते रहते हैं तथा अभिप्राय और भी गहरी गुप्त गुफा में छिपा रहता है। अतः दूसरों का मूल्यांकन क्रिया से ही सम्भव है और यही उचित भी है। लोक में भी यही व्यवस्था है । अपना परिणाम तो हम स्वयं जानते ही हैं और परिणामों की Jain Education International For Private & Personal Use Only - www.jainelibrary.orgPage Navigation
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