Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur
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क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन
(स) विषयसेवन में इष्टबुद्धि :- जिसप्रकार दाहज्वरवाला वायुरोग होने के भय से शीतल वस्तुओं का सेवन तो नहीं करता, परन्तु उसे शीतल वस्तुओं का सेवन करना अच्छा लगता है। शीतल वस्तुओं के प्रति उसकी रुचि ही उसके दाहज्वर को सिद्ध करती है। उसीप्रकार रागी-जीव नरकादि के भय से विषय-सेवन नहीं करता, परन्तु उसे विषय-सेवन करना अच्छा लगता है, अतः यह सिद्ध होता है कि उसके अभिप्राय में विषय-सेवन का राग विद्यमान है।
प्रश्न :- तो विषय-सेवन के प्रति ज्ञानी का अभिप्राय कैसा होता है?
उत्तर :-जिसप्रकार अमृत का स्वाद लेने वाले देव को अन्य भोजन करने की रुचि स्वयमेव नहीं होती, उसीप्रकार निज चैतन्यरस का स्वाद लेने वाले ज्ञानी को विषयों की रुचि स्वयमेव नहीं होती। अज्ञानी को विषयों के प्रति ऐसी अरुचि नहीं होती।
(द) परीषहादि में अनिष्टबुद्धि :- अज्ञानी जीव विषय-सेवन के काल में सुख और उसके फल में भविष्य में नरकादिक का दुःख मानता है तथा परिषह आदि सहन करते समय दुःख और भविष्य में उसके फल में स्वर्गादिक का सुख मानता है। इसप्रकार उसे परद्रव्य में सुख-दुःख मानने के कारण उनमें इष्ट-अनिष्टबुद्धि से राग-द्वेषरूप अभिप्राय बना रहता है।
इसके विपरीत ज्ञानी-जीव विषय-सेवन के भाव को ही दुःखरूप जानकर उसे छोड़ना चाहते हैं, अतः उन्हें विषय-सामग्री में इष्टबुद्धि नहीं है; तथा वे परीषह आदि को मात्र बाह्य-संयोग जानते हैं, उन्हें दुःखदायक नहीं मानते जानते हैं, अतः उनमें अनिष्टबुद्धि नहीं है। वे उपसर्ग-परीषह के काल में भी अपने को परद्रव्यों से भिन्न ज्ञानानन्द स्वभावी शुद्धात्मा के रूप में अनुभव करते हैं।
इसप्रकार द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि मुनि की क्रिया और परिणामों के सन्दर्भ में उसके अभिप्राय की विपरीतता को स्पष्ट किया गया है। अभिप्राय
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