Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray Author(s): Abhaykumar Jain Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 18
________________ क्रिया, परिणाम और अभिप्राय का स्वरूप ___कहीं-कहीं ‘परिणाम' के लिए परिणति शब्द का प्रयोग भी मिलता है। जैसे :- “परिणति सब जीवनि की तीन भाँति वरणी" राग-द्वेष, सुख-दुःख, पुण्य-पाप, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नंपुसकवेद आदि चारित्र गुण की पर्यायें तो जीव के परिणाम हैं ही, अतीन्द्रियज्ञान, आनन्द, वीतरागता आदि निर्मलपर्यायें तथा ज्ञान का क्षयोपशम भी परिणाम' शब्द के वाच्य समझना चाहिए। यहाँ 'मोह' शब्द का प्रयोग जानबूझकर नहीं किया गया है, क्योंकि दर्शनमोह की विस्तृत व्याख्या 'अभिप्राय' के प्रकरण में अलग से की जाएगी, चारित्रमोह की चर्चा तो उसके भेदों के रूप में इसी प्रकरण में आ चुकी है। (3) अभिप्राय :- ‘अभिप्राय' शब्द से आशय मान्यता या श्रद्धान से है। क्रिया और परिणाम के पश्चात् 'अभिप्राय शब्द रखा गया है। इससे इतना तो स्पष्ट है कि ‘अभिप्राय बाह्य क्रियाओं से भिन्न तो है ही, परिणामों से भी भिन्न कोई अलग वृत्ति है। पण्डित टोडरमलजी ने इसके लिए अभिप्राय शब्द के साथ-साथ ‘प्रतीति' और 'अभिनिवेश' शब्द का प्रयोग भी किया है। कहीं-कहीं 'विश्वास' और 'दृष्टिकोण' शब्द का प्रयोग भी किया जाता है। लोक में किसी कार्य को करने के उद्देश्य या उसके प्रयोजन को भी अभिप्राय कहते हैं। किसी विषय में होने वाले मन्तव्य को भी अभिप्राय कहा जाता है। यह मन्तव्य भी मान्यता का एक रूप है। __अगृहीत मिथ्यात्व तथा गृहीत मिथ्यात्व 'अभिप्राय' अर्थात् श्रद्धा गुण की विपरीत पर्यायें हैं। अभिप्राय की विपरीतता के कारण ही ज्ञान और चारित्र में विपरीतता होती है। अभिप्राय का अर्थ मिथ्यात्व ही हो- ऐसा नही है। यह शब्द श्रद्धा गुण की सामान्य परिणति का वाचक है। मिथ्यात्व और सम्यक्त्व, ये दोनों अभिप्राय के ही विशेष रूप हैं। मिथ्यादर्शन अर्थात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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