Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 81
________________ क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन कितने ही पापी जुआ आदि कुव्यसन में लग जाते हैं, अथवा सो रहना चाहते हैं। ऐसा जानते हैं कि किसी प्रकार काल पूरा करना । - इसीप्रकार अन्य प्रतिज्ञा में जानना" “अथवा कितने ही पापी ऐसे भी हैं कि पहले प्रतिज्ञा करते हैं, बाद में उससे दुःखी हों तब प्रतिज्ञा छोड़ देते हैं। प्रतिज्ञा लेना-छोड़ना उनको खेल मात्र है; सो प्रतिज्ञा भंग करने का महापाप है; इससे तो प्रतिज्ञा न लेना ही भला है"। इसप्रकार अज्ञानी जीवों द्वारा किसी एक धर्म-क्रिया के पालन के लिए परिणामों में आर्तध्यान, विषय-कषाय की तीव्रता तथा अन्य अनेक पाप-क्रियायें भी की जाती हैं। आखिर ऐसा क्यों होता है ? परिणामों में इतनी विकृति क्यों हो जाती है ? इसका कारण यह है कि वे सम्यक्चारित्र का सच्चा स्वरूप तो जानते नहीं और मात्र क्रिया में धर्म मानते हैं। वे समझते हैं कि जानने में क्या रखा है ? कुछ करेंगे तो फल लगेगा। इसलिए वे तत्त्वज्ञान का उपाय नहीं करते और व्रत-तप आदि क्रिया का ही प्रयत्न करते हैं। उनके अभिप्राय की इस विपरीतता के कारण ही उनके परिणामों की ऐसी दशा हो जाती है। उनके ऐसे ही अनेक प्रकार के परिणामों का चित्रण पण्डितजी ने पृष्ठ 238-240 पर किया है; जिसका सार निम्नानुसार है : (1) अन्तरंग में विरक्ति न होने से वे प्रतिज्ञा के पहले और बाद में उस विषय का अति-आसक्ति पूर्वक सेवन करते हैं। जैसे- उपवास के पहले और बाद मे अति-लोभी होकर गरिष्ठ भोजनादि करते हैं। जैसे किसी स्थान पर रोके हुए जल को पुनः छोड़ने से वह तेज प्रवाह से बहता है- ऐसी दशा उनके परिणामों की हो जाती है। (2) वे कभी तो बड़ा धर्माचरण करते हैं और कभी बहुत स्वच्छन्दी होकर प्रवर्तन करते हैं। जैसे- किसी धर्म-पर्व में बहुत उपवासादि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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