Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray Author(s): Abhaykumar Jain Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 87
________________ क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन में जाकर भी कोरे के कोरे वापिस आ गए। अतः मेरी भावना में कवि ने यही भावना भाई है - 78 'गुण ग्रहण का भाव रहे नित, दृष्टि न दोषों पर जावे" । प्रश्न :- यदि द्रव्यलिंगी की चर्चा करने से लोगों को मुनि - निन्दा का भ्रम होता है, तो आप द्रव्यलिंगी की चर्चा क्यों छेड़ते हैं, कोई दूसरा उदाहरण लेकर भी अपनी बात कह सकते हैं ? उत्तर :- भाई ! यह पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है कि द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि मुनि के सन्दर्भ में ही अभिप्राय की भूल स्पष्ट हो सकती है, क्योंकि उसकी क्रिया और परिणाम महाव्रतादिरूप हैं, फिर भी उसे मोक्षमार्ग नहीं होता। अतः अभिप्राय की भूल का विश्लेषण आवश्यक हो जाता है। जो विषय-भोगों की क्रियाओं और परिणामों में ही उलझे हैं, उनकी तो स्थूल भूलें ही दिख रही हैं। उनके क्रिया और परिणाम के परदे ही मैले हैं। जिसके क्रिया और परिणाम के परदे पारदर्शी हैं उसी का अभिप्राय वाला परदा दिखेगा। यही कारण है कि अभिप्राय की भूल समझने के लिए द्रव्यलिंगी मुनि की चर्चा की जाती है । उपर्युक्त द्रव्यलिंगी के अभिप्राय की सूक्ष्म विपरीतता का संकेत करते हुए पण्डित टोडरमलजी पृष्ठ 243 पर लिखते हैं : : "प्रथम तो संसार में नरकादि के दुःख जानकर व स्वर्गादि में भी जन्म-मरणादि के दुःख जानकर, संसार से उदास होकर मोक्ष को चाहते हैं । सो इन दुःखों को तो दुःख सभी जानते हैं । इन्द्र - अहमिन्द्रादिक विषयानुराग से इन्द्रियजनित सुख भोगते हैं, उसे भी दुःख जानकर निराकुल सुख अवस्था को पहिचानकर मोक्ष को चाहते हैं; वे ही सम्यग्दृष्टि जानना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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