Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray Author(s): Abhaykumar Jain Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 88
________________ सम्यक्चारित्र के लिए किए गए विपरीत प्रयत्नों के सन्दर्भ में ... तथा विषयसुखादिक का फल नरकादिक है; शरीर अशुचि, विनाशीक है पोषण योग्य नहीं है; कुटुम्बादिक स्वार्थ के सगे हैं; इत्यादि परद्रव्यों का दोष विचार कर उनका तो त्याग करते हैं- और व्रतादिक का फल स्वर्ग- मोक्ष है; तपश्चरणादि पवित्र अविनाशी फल के दाता हैं, उनके द्वारा शरीर का शोषण करने योग्य है; देव-गुरु-शास्त्रादि हितकारी हैं- इत्यादि प्ररद्रव्यों के गुणों का विचार करके उन्हीं को अंगीकार करते हैं- इत्यादि प्रकार से किसी परद्रव्य को बुरा जानकर अनिष्टरूप श्रद्धान करते हैं, किसी परद्रव्य को भला जानकर इष्ट श्रद्धान करते हैं । सो परद्रव्यों में इष्ट-अनिष्टरूप श्रद्धान सो मिथ्या है। तथा इसी श्रद्धान से इनके उदासीनता भी द्वेषबुद्धिरूप होती है; क्योंकि किसी को बुरा जानना उसी का नाम द्वेष है । " 79 उक्त गद्यांश में मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनि तथा सम्यग्दृष्टि इन्द्रअहमिन्द्र के क्रिया, परिणाम और अभिप्राय का तुलनात्मक विवेचन किया गया है, जिससे इन दोनों के अभिप्राय का अन्तर स्पष्ट हो जाता है। इन दोना में एक क्रिया और परिणामों से महाव्रती होते हुए भी विपरीत अभिप्राय सहित है और दूसरा क्रिया और परिणामों से अव्रती होते हुए भी यथार्थ अभिप्रायवाला है। इन्द्र अथवा चक्रवर्ती आदि ज्ञानी जीवों को अव्रत की भूमिका में प्रचुर भोगों की क्रिया और परिणाम होने पर भी अभिप्राय में भोगों में सुख बुद्धि नहीं है, अतः वे मोक्षमार्गी हैं। इसी अभिप्राय की मुख्यता से ही ज्ञानी भोगों को भी निर्जरा का कारण कहा जाता है । 'भरतजी घर में वैरागी' जैसी उक्तियाँ भी प्रसिद्ध हैं। कविवर दौलतरामजी विरचित भजन 'चिन्मूरत दृगधारिन की मोहे रीति लगत है अटापटी' - भी ज्ञानियों के निर्मल अभिप्राय का चित्रण करता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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