Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray Author(s): Abhaykumar Jain Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 82
________________ 73 सम्यक्चारित्र के लिए किए गए विपरीत प्रयत्नों के सन्दर्भ में ... करते हैं और किसी धर्म-पर्व में बार-बार भोजनादिक करते हैं। भाद्रपद के दशलक्षण में, भक्ति, पूजन आदि बहुत करते हैं, परन्तु माघ तथा चैत्र के दशलक्षण एवं अष्टाह्निका आदि पर्वो मे अनर्गल प्रवृत्ति करते हैं। (3) वे कोई क्रिया बहुत बड़ी अंगीकार करते हैं और कोई क्रिया हीन करते हैं। जैसे- धनादिक का त्याग कर देते हैं, परन्तु स्वादिष्ट भोजन करते हैं; तथा आकर्षक वस्त्रादि पहनते हैं अथवा स्त्रीसेवनादिक का त्याग करके भी खोटे व्यापारादि लोक-निंद्य कार्य करते हैं। ऐसे लोगों को अविवेकी घोषित करते हुए पण्डितजी कहते हैं कि उन्हें सम्यक्चारित्र का आभास भी नहीं होता। क्रिया और परिणामों का सन्तुलन रागादि दूर होने पर ही हो सकता है। पण्डितजी ने इस संतुलित स्थिति का चित्रण पृष्ठ 240 पर किया है, जिसका उल्लेख पूर्व में भी किया जा चुका है : "सच्चे धर्म की तो यह आम्नाय है कि जितने अपने रागादि दूर हुए हों, उसके अनुसार जिस पद में जो धर्म-क्रिया सम्भव हो वह सब अंगीकार करे। यदि अल्प रागादि मिटे हों तो निचले पद में ही प्रवर्तन करे; परन्तु उच्चपद धारण करके नीची क्रिया न करे।" प्रश्न :- क्रिया और परिणाम का ऐसा सन्तुलन किस प्रकार हो सकता है ? उत्तर :- वास्तव में अभिप्राय की विपरीतता मिटने पर अर्थात् सम्यग्दर्शन होने पर भूमिका के अनुसार परिणाम और क्रिया सहज होते हैं। मन्द कषायी मिथ्यादृष्टि जीव को भी कषायों की मन्दता होने से तदनुकूल बाह्य-क्रिया भी सहज होती है। इसप्रकार यथार्थ अभिप्राय के निमित्त से परिणामों में आँशिक शुद्धि तथा मन्दकषायरूप परिणामों के निमित्ति से क्रिया भी धर्माचरणरूप हो जाती है। यद्यपि ये तीनों स्वतन्त्र और परस्पर निरपेक्ष हैं; तथापि इनमें ऐसा निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध भी सहज होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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