Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 84
________________ सम्यक्चारित्र के लिए किए गए विपरीत प्रयत्नों के सन्दर्भ में ... 75 अर्थात् मिथ्यादृष्टि'- यह भ्रान्ति नहीं रखना चाहिए। यहाँ द्रव्यलिङ्ग धारण करने पर भी जो प्रथम गुणस्थानवर्ती हैं, उनके विपरीत अभिप्राय की समीक्षा की जा रही है। मन्दकषाय होने पर अणुव्रत-महाव्रतादि के परिणाम और तदनुकूल आचरण भी होता है। वास्तव में देखा जाए तो उक्त स्थिति बनने के कारण ही इस विषय को गहराई से समझने की आवश्यकता है। यदि ऐसा न होता अर्थात् विपरीत अभिप्राय के साथ पापरूप परिणाम और पाप-क्रिया ही होते तथा सम्यक् अभिप्राय के साथ वीतरागभाव और वीतरागी क्रिया (ध्यानस्थ मुद्रा) ही होती तो अभिप्राय की भूल भी क्रिया और परिणामों के माध्यम से ही समझ में आ जाती; उसे समझना इतना दुर्लभ न होता। व्रतादिरूप क्रिया और तदनुसार परिणामों की उत्कृष्ट स्थिति होने पर यह जीव इकतीस सागर की आयु बाँधकर अन्तिम ग्रैवेयक तक चला जाता है। यह अन्तरंग परिणाम पूर्वक महाव्रतादि पालता है, महामन्दकषायी होता है; उसे इहलोक-परलोक के भोगादिक की चाह नहीं होती, वह मात्र मोक्षभिलाषी होता है और केवल धर्मबुद्धि से धर्म-साधन करता है। ऐसे जीव को शास्त्रों में द्रव्यलिंगी मिथ्यादृष्टि मुनि कहा है। उसके अभिप्राय की ओर संकेत करते हुए पण्डित टोडरमलजी पृष्ठ 243 पर लिखते हैं : "...... इसलिए द्रव्यलिंगी के स्थूल तो अन्यथापना है नहीं, सूक्ष्म अन्यथापना है; सो सम्यग्दृष्टि को भासित होता है।" प्रश्न :- जब द्रव्यलिङ्गी के अभिप्राय का सूक्ष्म अन्यथापना सम्यग्दृष्टि को भासित होता है तो आप उसके अभिप्राय की भूलों का विश्लेषण कैसे कर सकते हैं ? उत्तर :- भाई ! हम किसी व्यक्ति के बारे में कहें कि यह द्रव्यलिङ्गी है, और उसके अभिप्राय में यह भूल है तो आपका कहना बिल्कुल ठीक है; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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