Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

Previous | Next

Page 37
________________ क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन ज्ञायकभाव ही है। ज्ञान की प्रधानता से श्रद्धा के विषय में भेद करके उसे अनन्त गुणों का पिण्ड, उपयोग लक्षणरूप....इत्यादि भी कहा जाता है। यहाँ अधिक विस्तार की आवश्यकता नहीं है, संक्षेप में इतना ही कहना पर्याप्त है। उपर्युक्त बालक के समान हम सबकी भी यही स्थिति है। हम सबका डॉक्टर, पण्डित, सेठ, कवि, लेखक, पुरुष, स्त्री आदि अवस्थाओं में किसी न किसी रूप में अहं निरन्तर रहता है। अन्य कार्यों में निरन्तर तन्मय रहने पर भी हमारा अहं कायम रहता है, वह मिट नहीं जाता। पूजा करते समय या प्रवचन सुनते समय क्रिया और परिणामों में पूजन और वैसे ही भाव विद्यमान होने पर भी सेठजी अपने को सेठ तथा डॉक्टर अपने को डॉक्टर मानते हैं। पुरुष या महिलायें भी स्वयं को पुरुष या महिला समझकर ही अपने लिए सुनिश्चित अलग-अलग स्थानों पर बैठकर प्रवचन सुनते हैं। श्रोताओं की क्या बात कहें ? भेदविज्ञान और सम्यग्दर्शन का स्वरूप और उसकी विधि का भाव-विभोर होकर वर्णन करने वाले अधिकाँश प्रवक्ता भी उस समय क्या अपने को पुरुष, खण्डेलवाल, अग्रवाल आदि रूप नहीं मानते ? यह सब अभिप्राय का ही कमाल है। अभिप्राय अपनी अनुभूति में इतना मजबूत रहता है कि उस पर बाह्य क्रिया और परिणामों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। वह उनसे अप्रभावित रहकर अपनी ही धारा में बहता रहता है। अभिप्राय की इस विशेषता का विशेष स्पष्टीकरण आगे भी यथास्थान किया जाएगा। प्रश्न :- परिणाम और अभिप्राय में क्या अन्तर है ? उत्तर :- इस प्रसंग में परिणाम शब्द का अर्थ, राग-द्वेष, पुण्य-पाप आदि चारित्रमोह के उदय से होने वाले विकार तथा क्षयोपशम ज्ञान अभीष्ट है। अभिप्राय शब्द से आशय श्रद्धा और ज्ञान की विपरीतता या यथार्थता अर्थात् रुचि, प्रतीति, अध्यवसाय आदि भावों से है। इनमें दर्शनमोह का उदय निमित्त है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114