Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray Author(s): Abhaykumar Jain Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 72
________________ सम्यक्चारित्र के लिए किए गए विपरीत प्रयत्नों के सन्दर्भ में ... बहुत बड़े कार्यक्रमों भी में वाद्य-यन्त्रों का प्रयोग आटे में नमक जितने अनुपात में अर्थात् बहुत मन्द आवाज में होना चाहिए। आजकल अनेक स्थानों पर यह समस्या उत्पन्न होती है कि उत्साही युवक तेज गति में तबला, ढोलक आदि बजाते हैं; जिससे 40-45 वर्ष से अधिक उम्र वाले लोगों के कानों में तकलीफ होने से वे विरोध करते हैं। स्थिति यहाँ तक पहुँच जाती है कि युवक उनकी सुनते नहीं और बुजुर्गों को सामूहिक पूजन में आना बन्द करना पड़ता है। आज-कल पूजन के प्रत्येक छन्द को अलग-अलग धुनों में गाने का फैशन बन गया है। वह धुन बिठाने के लिए उसी धुन में प्रचलित भक्ति बोली जाती है और उस भक्ति के बोल प्रसंगानुकूल भी नहीं होते। वह भक्ति भी सिनेमा के श्रृंगार पोषक गानों की तर्ज में होती है, जिसमें शालीनता का अभाव होता है। पूजन में तप-कल्याणक के छन्द की धुन बिठाने के लिए जन्म-कल्याणक की भक्ति भी चलती है। एक पञ्चकल्याणक महोत्सव में पाण्डुक शिला पर जन्माभिषेक के समय उत्साही युवा मण्डली गाने लगी'होली खेलें मुनिराज अकेले वन में' । जरा विचार कीजिए कि जन्माभिषेक के समय यह गीत गाने का क्या औचित्य है। वास्तव में बार-बार धुन बदलने की आवश्यकता नहीं है, यह भी कर्णेन्द्रिय-विषय के लोभ का प्रतीक है। यहाँ क्रिया और परिणामों की विसंगतियों का विस्तृत विवेचन इसी उद्देश्य से किया गया है कि हम पूजन-पाठ के भावों पर ही लक्ष्य रखें तथा गीत-संगीत को अत्यन्त गौण रखते हुए उक्त विसंगतियों से बचें। उक्त परिस्थितियों में क्रिया और परिणाम दोनों विकृत हैं, जबकि इस प्रकरण में पडिण्तजी ऐसी परिस्थितियाँ बताना चाहते हैं, जिनमें क्रिया यथार्थ होते हुए भी परिणाम और अभिप्राय विकृत होते हैं। सातवें अधिकार के पृष्ठ 238-239 पर उपवास करते समय कैसे-कैसे परिणाम हो जाते हैं – इसका मार्मिक चित्रण निम्न शब्दों में किया गया है : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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