Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

Previous | Next

Page 71
________________ क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन प्रश्न : यदि ऐसा है तो लय, ताल, स्वर, धुन आदि सब बढ़िया होना ही चाहिए, नहीं तो पूजन-पाठ में भाव ही नहीं लगेंगे ? 62 उत्तर :- अरे भाई ! जरा गम्भीरता से तो सोचो कि भाव किसमें लगे ? पूजन में बोले जा रहे छन्दों के अर्थ में या मधुर कण्ठ और संगीत में, यहीं तो हमें विवेक की आवश्यकता है। हम तन्मय होते हैं गीत-संगीत में, कर्णेन्द्रिय के विषय में और यह मानकर सन्तुष्ट होते हैं कि पूजन में बहुत आनन्द आया । क्या यह विषयानन्दी रौद्र ध्यान नहीं है ? बहुत से अविवेकी लोग ऐसे प्रसंगों में यह भी बोलने लगते हैं कि बोलो 'आज के आनन्द की जय' । वे यह भी नहीं विचारते कि यह आनन्द कौन-सा है; वह जय करने लायक है या पराजय करने लायक है ? प्रश्न :- यदि ऐसा है तो पूजन में गीत-संगीत का प्रयोग बिल्कुल नहीं होना चाहिए ? उत्तर :- जब हम व्यक्तिगत स्तर पर नित्य पूजन करते हैं तब तो स्वरताल गीत-संगीत की आवश्यकता ही नहीं है । उस समय तो हमारी आवाज भी इतनी मन्द होना चाहिए कि दर्शन-पूजन करने वाले अन्य साधर्मियों को विघ्न न हो । यदि पूजन-विधान का कार्यक्रम सामूहिक रूप में हो रहा हो, तो उनका वाचन छन्द के अनुरूप तथा स्वर-ताल सहित होना चाहिए, क्योंकि यदि बेसुरा और बेताला अर्थात् अव्यवस्थित वाचन होगा तो बहुत अशोभनीय लगेगा और लोगों का मन ही नहीं लगेगा तो वे विकथा करने लगेंगे। किन्तु इसके लिए गान - विद्या में गन्धर्वो जैसी कुशलता की आवश्यकता नहीं है तथा वाद्य-यन्त्रों का प्रयोग भी आवश्यक नहीं है। गाने के लिए हमारी सामान्य बुद्धि और बजाने के लिए हाथों की तालियाँ ही पर्याप्त हैं। यदि प्रकृति ने हमें अच्छी आवाज नहीं दी तो हमें मन्द आवाज दूसरों के साथ मिलकर गाना चाहिए। माइक पर गाने का लोभ बिल्कुल नहीं करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114