Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray Author(s): Abhaykumar Jain Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 74
________________ सम्यक्चारित्र के लिए किए गए विपरीत प्रयत्नों के सन्दर्भ में ... परिणामों की परम्परा :परिणामों की परम्परा से आशय उस मूल नियंत्रण बिन्दु से है, जो परिणामों को संचालित करता है । परम्परा का स्वरूप समझने के लिए हमें यह विचार करना चाहिए कि हमारे ये शुभाशुभ परिणाम क्यों हो रहे हैं ? उसका जो उत्तर आएगा वह परिणामों की परम्परा अर्थात् अभिप्राय की वासना को बताने वाला होगा। यदि कदाचित् उस उत्तर से अभिप्राय का स्वरूप स्पष्ट न हो, तो पुनः प्रश्न चिन्ह लगायें कि ऐसा क्यों हो रहा है ? इस प्रक्रिया को दो-चार बार अपनाने से परिणामों की परतों के नीचे छुपा अभिप्राय स्पष्ट होता चला जाएगा। क्रिया, परिणाम और अभिप्राय में उत्तरोत्तर सूक्ष्मता बताते समय पृष्ठ 34 पर उक्त प्रक्रिया को धन कमाने के उदाहरण से समझाया जा चुका है। यहाँ पुनः एक उदाहरण से यह बात और अधिक स्पष्ट की जा रही है। 65 मान लीजिए कोई व्यक्ति प्रतिदिन जिनेनद्र - पूजन करता है। इस सम्बन्ध में उससे पूछे गये प्रश्नोत्तरों का स्वरूप कुछ इसप्रकार होगा : प्रश्न :- आप प्रतिदिन पूजन क्यों करते हैं ? उत्तर :- हमारा रोज पूजन करने का नियम है इसलिए करते हैं। प्रश्न :- आपने यह नियम क्यों लिया ? उत्तर :- हमारे पिताजी अन्तिम समय में कह गए थे कि यह मन्दिर / वेदी पूर्वजों ने बनवाई है, अतः यहाँ रोज पूजन करना ! इसीलिए हमने यह नियम लिया है। प्रश्न :- क्या आप पूज्य और पूजा जानते है ? के स्वरूप में कुछ उत्तर :- हमें यह जानने की फुरसत ही कहाँ है ? यह सब जानना तो आप जैसे पण्डितों का काम है। हम तो अपने नियम का ईमानदारी से पालन करते हैं। उक्त प्रश्नोत्तरों से स्पष्ट होता है कि वह व्यक्ति मात्र नियम पालन For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.orgPage Navigation
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