Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

Previous | Next

Page 75
________________ 66 क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन में ही सन्तुष्ट है। तत्त्व समझने से उसे कोई प्रयोजन नहीं है। यह सन्तुष्टि और अनध्यवसाय भाव ही उसका विपरीत अभिप्राय है। उक्त प्रश्नोत्तरों का दूसरा रूप इसप्रकार भी हो सकता है : प्रश्न :- आप प्रतिदिन पूजन क्यों करते हैं ? उत्तर :- पाप से बचने के लिए तथा पुण्य कमाने के लिए करते हैं। प्रश्न :- आप पाप से क्यों बचना चाहते हैं और पुण्य क्यों कमाना चाहते हैं ? उत्तर :- पाप के फल में नरकादि गतियों में दुःख भोगना पड़ता है, इसलिए हम उनसे बचना चाहते हैं; तथा पुण्य से स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है, इसलिए हम पुण्य करना चाहते हैं। उपर्युक्त प्रश्नोत्तर से स्पष्ट है कि वह जीव प्रतिकूल संयोगों में दुःख तथा अनुकूल संयोगों में सुख और पुण्यभाव में धर्म मानता है। यह मान्यता ही अभिप्राय की विपरीतता है। यदि सम्यग्यदृष्टि से यही प्रश्न पूछा जाए तो उनका उत्तर होगा - अर्हन्त भगवान पूर्ण वीतरागी और सर्वज्ञ हैं, उनके गुणगान के माध्यम से उनका समागम किए बिना मुझसे रहा नहीं जाता; क्योंकि उनके समागम से मुझे अपने स्वरूप की रुचि पुष्ट होती है। इसलिए मुझे उनके दर्शन-पूजन का भाव सहज ही आता है; आए बिना नहीं रहता। ज्ञानी के उक्त उत्तर में उनकी स्वरूप की रुचि तथा शुभभाव का भी सहज ज्ञातृत्व (अकर्तृत्व) झलकता है; यही सम्यक् अभिप्राय है। इसप्रकार यदि हम समस्त शुभाशुभ परिणामों की परम्परा का विचार करें तो उनके तल में पड़ी प्रयोजनभूत जीवादि तत्त्वों के सम्बन्ध में हमारी मान्यता स्पष्ट हो जाएगी और यही हमारा यथार्थ या अयथार्थ अभिप्राय होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114