Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray Author(s): Abhaykumar Jain Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 76
________________ सम्यक्चारित्र के लिए किए गए विपरीत प्रयत्नों के सन्दर्भ में ... प्रश्न :- हमारा अभिप्राय यथार्थ है या अयथार्थ ? यह निर्णय कैसे हो सकेगा ? उत्तर :- जिनागम में वर्णित वस्तु-स्वरूप की कसौटी पर कसकर परखने से हमें ज्ञात हो जाएगा कि हमारा अभिप्राय यथार्थ है या मिथ्या है। यदि हमारा अभिप्राय जिनागम प्रणीत वस्तु-स्वरूप के अनुसार हुआ तो वह यथार्थ होगा और यदि वस्तु-स्वरूप से विपरीत हुआ तो मिथ्या होगा। अपने को शरीर और रागादि से भिन्न, उनका अकर्ता, तथा सहज ज्ञाता मानने वाला अभिप्राय सम्यक् है, यथार्थ है तथा इससे विपरीत अपने को शरीरादिमय मानने वाला अभिप्राय अयथार्थ अर्थात् मिथ्या है। अभिप्राय की वासना :- यद्यपि अभिप्राय के स्वरूप का स्पष्टीकरण करते हुए इसके बारे में बहुत कुछ कहा जा चुका है; अभिप्राय को जाननेपहचानने की प्रक्रिया भी बताई जा चुकी है; तथापि पण्डितजी ने परिणामों की परम्परा' का विचार करने पर 'अभिप्राय की वासना' को न पहचानने की बात कही है, अतः इस शब्द के भाव को और अधिक गहराई से स्पष्ट किया जाना अपेक्षित है। 'अभिप्राय की वासना' का आशय हमारी विपरीत मान्यता से ही है। यद्यपि लोक में 'वासना' शब्द का प्रयोग मन की गहराइयों में पड़ी हुई भोगों की अभिलाषा को बताने के लिए किया जाता है, तथापि यहाँ वासना'शब्द का प्रयोग सातों तत्त्वों सम्बन्धी विपरीत मान्यता के अर्थ में करके पण्डितजी ने उसे अत्यन्त व्यापकता प्रदान की है। प्रश्न :- यह कैसे सिद्ध होता है कि पण्डित टोडरमलजी ने अभिप्राय की वासना' शब्द का प्रयोग सातों तत्त्वों सम्बन्धी भूल के अर्थ में किया है? उत्तर :- मोक्षमार्ग प्रकाशक के सातवें अधिकार में पृष्ठ 243-248 तक द्रव्यलिंगी मुनि के अभिप्राय का स्वरूप स्पष्ट करते हुए पण्डितजी ने उसके मिथ्यात्व का ही वर्णन किया है, अतः यह बात स्वतः ही सिद्ध हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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