Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray Author(s): Abhaykumar Jain Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 68
________________ 59 सम्यक्चारित्र के लिए किए गए विपरीत प्रयत्नों के सन्दर्भ में ... व्रतादिक धारण करता है तो वहाँ बाह्य क्रिया पर दृष्टि है; सो भी कोई सच्ची क्रिया करता है, कोई झूठी करता है; और जो अंतरंग रागादि भाव पाये जाते हैं उनका विचार ही नहीं है, तथा बाह्य में भी रागादि के पोषण के साधन करता है। तथा पूजा-प्रभावनादि कार्य करता है तो वहाँ जिस प्रकार लोक में बड़ाई हो व विषय-कषाय का पोषण हो, उस प्रकार का कार्य करता है। तथा बहुत हिंसादिक उत्पन्न करता है। सो यह कार्य तो अपने तथा अन्य जीवों के परिणाम सुधारने के अर्थ कहे हैं। तथा वहाँ किंचित् हिंसादिक भी उत्पन्न होते हैं, परन्तु जिसमें थोड़ा अपराध हो और गुण अधिक हो वह कार्य करना कहा है। सो परिणामों की पहचान नहीं है और यहाँ अपराध कितना लगता है, गुण कितना होता है - ऐसे नफा-टोटे का ज्ञान नहीं है व विधि-अविधि का ज्ञान नहीं है। तथा शास्त्राभ्यास करता है तो वहाँ पद्धति रूप प्रवर्तता है। यदि बाँचता है तो औरों को सुना देता है, यदि पढ़ता है तो आप पढ़ जाता है, सुनता है तो जो कहते है वह सुन लेता है; परन्तु जो शास्त्राभ्यास का प्रयोजन है उसे आप अन्तरंग में नहीं अवधारण करता-इत्यादि धर्मकार्यों के मर्म को नहीं पहचानता। कितने तो जिस प्रकार कुल में बड़े प्रवर्तते हैं, उसी प्रकार हमें भी करना है अथवा दूसरे करते हैं वैसे हमें भी करना है, व ऐसा करने से हमारे लोभादिक की सिद्धि होगी – इत्यादि विचार सहित अभूतार्थ धर्म को साधते हैं। तथा कितने ही जीव ऐसे होते हैं जिनके कुछ तो कुलादिरूप बुद्धि है, कुछ धर्म बुद्धि भी है; इसलिए पूर्वोक्त प्रकार भी धर्म का साधन करते हैं और कुछ आगे कहते है उस प्रकार से अपने परिणामों को भी सुधारते हैं - मिश्रपना पाया जाता हैं।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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