Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 64
________________ सम्यक् चारित्र के लिए किए गए विपरीत प्रयत्नों के सन्दर्भ में ... यह बात भी गहराई से विचारणीय है कि देव-पूजा, स्वाध्याय, संयम आदि व्यवहार धर्म का प्रयोजन तो आत्महित का पोषण है, जबकि संस्थाओं की धार्मिक गतिविधियों के संचालन हेतु कार्य करना व्यवहार धर्म का अंग नहीं है, वह तो धर्म पिपासु जीवों के लिए की गई सेवा है । व्यवहार धर्म तो प्रत्येक साधक के जीवन में अनिवार्यरूप से सहज होता है, जबकि संस्थाओं में सेवा देना अनिवार्य व्यवहार धर्म नहीं है। यह बात अलग है कि आत्मार्थी जीव इन कार्यों से भी मान लोभादि का पोषण न करके अध्यात्म रस का ही पोषण करें। चौथे प्रकार के जीव किसी को दिखाने के लिए नहीं अपितु मुक्ति प्राप्त करने के लिए धर्माचरण करते हैं, परन्तु शुभभाव और बाह्य - क्रिया में धर्म मानते हैं। यह मान्यता ही व्यवहाराभास है । अतः वे 'ईमानदार मिथ्यादृष्टि' कहे जा सकते हैं। धर्मधारक शब्द धार्मिक क्रिया और शुभ परिणाम का वाचक है तथा 'धर्मबुद्धि' शब्द उस क्रिया और शुभभाव में धर्म माननेरूप मिथ्या अभिप्राय का वाचक है। बाह्यक्रिया और शुभभाव में धर्म मानना ही 'पेकिंग' को 'माल' मानने के समान विपरीत अभिप्राय है, जिसे व्यवहाराभास कहा गया है। 55 उक्त व्यवहाराभासी प्रकरण के अन्तर्गत सम्यग्दर्शन और सम्यग्यज्ञान के लिए किए गए प्रयत्नों में होने वाली विपरीतता का वर्णन करने के पश्चात् सम्यक्चारित्र के लिए किए गए प्रयत्नों में होने वाली विपरीतता का वर्णन करते हुए पण्डितजी ने क्रिया, परिणाम और अभिप्राय की स्थिति स्पष्ट की है। इसी पुस्तक के पृष्ठ 7 पर वह अंश उद्धृत किया गया है, जिसमें वे क्रिया और परिणाम का वर्णन निम्न वाक्यांश द्वारा करते हैं : "बाह्य क्रिया पर तो इनकी दृष्टि है और परिणाम सुधरने-बिगड़ने का विचार नही है....।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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