Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray Author(s): Abhaykumar Jain Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 52
________________ 43 क्रिया, परिणाम और अभिप्राय का जीवन पर प्रभाव दुःख को भोगता है। इस विषय को विस्तार से समझने के लिए ग्रन्थाधिराज समयसार का कर्ता-कर्म अधिकार और उसकी टीका का गहन अध्ययनमनन करना चाहिए। प्रश्न:- आत्मा शरीरादि की क्रिया का कर्त्ता नही है - यह बात तो निश्चयनय की है; परन्तु व्यवहारनय से तो उसे कर्त्ता कहते हैं ? फिर उसे क्रिया का फल कैसे नहीं मिलता ? उत्तर:- कहने का नाम ही तो व्यवहार है, अर्थात् वस्तु-स्वरूप तो निश्चयनय का विषय है। जिस नय से आत्मा को शरीरादि की क्रिया का कर्ता कहा जाता है; उसी नय से उसे उसके फल का भोक्ता भी कहेंगे; परन्तु यहाँ वस्तु के स्वरूप का स्पष्टीकरण किया जा रहा है, कथन पद्धति का नहीं। शरीरादि की क्रिया में जीव के परिणाम निमित्त होते हैं। इसका ज्ञान कराने के लिए व्यवहारनय से जीव को शरीरादि की क्रिया का कर्ता-भोक्ता कहा जाता है। 3. अभिप्राय का प्रभाव :- अभिप्राय का हमारे जीवन में अर्थात् बन्ध-मोक्ष, सुख-दुःख पर क्या प्रभाव पड़ता है - यह बात अत्यन्त गंभीरता से विचारणीय है; क्योंकि अभिप्राय, परिणामों की अपेक्षा अत्यन्त सूक्ष्म है, तथापि अत्यन्त व्यापक एवं दूरगामी है; अर्थात् अभिप्राय का फल परिणामों से अनन्त गुना है। प्रश्नः- परिणामों की अपेक्षा अभिप्राय का फल अनन्त गुना क्यों है? उत्तर:- अभिप्राय का फल अनन्त गुना इसलिए है कि यदि अभिप्राय में विपरीतता हो तो परिणामों में अनन्तानुबन्धी कषाय रहती है और अभिप्राय की विपरीतता मिटने पर अनन्तानुबन्धी कषाय भी मिट जाती है। अभिप्राय की वृत्ति का व्यापक स्वरूप देखा जाए तो वह भी परिणामों से अनन्तगुनी अधिक होती है। परिणाम सीमित पदार्थों के प्रति ही समर्पित होते हैं, जबकि अभिप्राय अनन्त पदार्थों को अपना विषय बनाता है। यदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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