Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray Author(s): Abhaykumar Jain Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 53
________________ क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन हमें भूख लगती है तो हमारी इच्छा एक सीमित मात्रा में ही भोजन करने की होती है और उतने से ही तृप्त हो जाती है, परन्तु यदि हमारे अभिप्राय में यह मान्यता है कि भोजन से सुख होता है, तो फिर अब सीमित मात्रा का प्रश्न ही नहीं उठता; क्योंकि हमारे अभिप्राय में अनन्त परपदार्थों के प्रति सुखबुद्धि है। इसीप्रकार यदि हमें किसी व्यक्ति पर क्रोध आता है तो हमारा क्रोध उसी व्यक्ति तक सीमित रहता है, परन्तु यदि हम परपदार्थों से अपना बुरा होना मानें; तो फिर हमारी मान्यता (अभिप्राय) में अनन्त पदार्थों से द्वेष हुआ; यही कारण है कि जब तक विपरीत अभिप्राय है, तब तक जीव अनन्त दुःखी रहता है। यद्यपि अभिप्राय प्रत्यक्षरूप से हमारी क्रियाओं को प्रभावित नहीं करता, परन्तु वह परिणाम की दिशा को प्रभावित अवश्य करता है। अतः वह परोक्षरूप से क्रियाओं को प्रभावित करता है। हमारी सोच या मान्यता के अनुसार ही हमारे राग-द्वेष परिणाम तथा सुख दुःख होते हैं। एक ही परिस्थिति में कोई व्यक्ति अपने को सुखी अनुभव करता है और कोई दुःखी अनुभव करता है। यदि हमारा अभिप्राय वस्तु स्वरूप के अनुसार है तो हम हर परिस्थिति में समाधान कर लेंगे। विपरीत अभिप्राय होने पर हम जरा-सी प्रतिकूलता में भी तीव्र आकुलता करेंगे और तीव्र दुःखी होंगे। इसप्रकार अभिप्राय का फल परिणामों से अनन्त गुना होना न्यायसंगत है- यह बात सरलता से सिद्ध हो जाती है। प्रश्नः- यदि विपरीत अभिप्राय का फल अनन्त दुःख है तो विपरीत अभिप्राय मिटने पर अर्थात् सम्यक्त्व होने पर अनन्त सुख क्यों नहीं हो जाता ? उत्तर:- यद्यपि परिणामों में राग-द्वेष और अल्पज्ञता रहने के कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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