Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray Author(s): Abhaykumar Jain Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 48
________________ क्रिया, परिणाम और अभिप्राय का जीवन पर प्रभाव उक्त कथानक से स्पष्ट होता है कि एक-सी क्रिया होने पर भी एक को पाप का बन्ध हुआ है और दूसरे को पुण्य का बन्ध हुआ। प्रश्न :- सिंह मुनि को मार रहा था और शूकर उन्हें बचा रहा था, अतः यह कैसे कहा जा सकता है कि दोनों की क्रिया एक-सी थी ? उत्तर :- अरे भाई ! मारने या बचाने का भाव तो उनके परिणामों में था, उसके लिए वे एक-दूसरे को मारने की क्रिया ही तो कर रहे थे ! असल में जगत अपने भावों का आरोप करके ही क्रिया का परिचय देता है। इसलिए सिंह के परिणामों का आरोप उसकी क्रिया पर करके यह कहा जाएगा कि वह मुनिराज को मार रहा था; अतः उसकी क्रिया पाप-क्रिया कहलाएगी, और शूकर के परिणामों का आरोप उसकी क्रिया पर करके यह कहा जाएगा कि वह उन्हें बचा रहा था। अतः उसकी क्रिया शुभ-क्रिया कहलाएगी; क्योंकि भावों के बिना क्रिया अच्छी-बुरी कुछ भी नहीं होती। आगम में भी क्रिया पर भावों का आरोप करके मन-वचन-काय की शुभ-क्रिया को शुभ-योग और अशुभ-क्रिया को अशुभ-योग भी कहा गया है। प्रश्न :- उक्त क्रिया और परिणाम के साथ उन दोनों के अभिप्राय में क्या था ? उत्तर :- सिंह तो अज्ञानी ही था, क्योंकि यदि वह ज्ञानी होता तो उसे मुनिराज पर उपसर्ग करने का भाव ही न आता। उसके अभिप्राय में यही अज्ञान मिथ्यात्व था कि 'मैं सिंह हूँ, यह व्यक्ति मेरा भोजन है, मैं अपने पराक्रम से इसे मारकर खा सकता हूँ। मैं इसे खाऊँगा तो सुखी हो जाऊँगा। इसप्रकार उसके अभिप्राय में सातों तत्त्वों सम्बन्धी भूल विद्यमान थी। सिंह को पूर्वभव के बैर के कारण भी मुनिराज पर उपसर्ग करने का भाव आ सकता है । इस स्थिति में भी वह उन्हें अपना शत्रु मानकर विपरीत अभिप्राय का पोषण कर रहा है । शूकर ज्ञानी भी हो सकता है और अज्ञानी भी; क्योंकि मुनिराज का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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