Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray Author(s): Abhaykumar Jain Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 46
________________ 37 क्रिया, परिणाम और अभिप्राय का जीवन पर प्रभाव परिणामों में स्वाधीन और सहज परिणमन कर रहा है। हमारा विपरीत अभिप्राय भी इसी विश्व व्यवस्था के अन्तर्गत स्वाधीनता से अपना परिणमन कर रहा है, परन्तु उससे विश्व की व्यवस्था पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसप्रकार यह स्पष्ट होता है कि लौकिक व्यवस्था पर बाह्य-क्रिया का सीधा प्रभाव पड़ता है । परिणाम और अभिप्राय जब क्रिया के माध्यम से व्यक्त होते हैं, तभी जगत के जीव उनसे प्रभावित होकर प्रसन्न या अप्रसन्न होते हैं। दूसरों की श्रेष्ठता का मूल्याँकन क्रिया से ही करना चाहिए, समाज में यही होता है और यही सम्भव है; परन्तु स्वयं का मूल्याँकन मात्र क्रिया से नहीं, अपितु परिणामों और अभिप्राय से करना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति मान-प्रतिष्ठा के लिए या किसी पद की प्राप्ति के लिए अथवा टैक्स आदि बचाने के लिए किसी संस्था को दान देता है, तो उसके ऐसे परिणामों का फल तो उस व्यक्ति को ही मिलेगा। संस्था को तो दान ही मिला और इससे उसकी गतिविधियों का प्रचार-प्रसार ही होगा। उसने किस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए दान दिया है – इसका संस्था पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। संस्था तो उसके दान के प्रति कृतज्ञता ही व्यक्त करेगी। यद्यपि परिणाम और अभिप्राय लौकिक व्यवस्था को सीधा प्रभावित नहीं करते; तथापि सुःख-दुःख, बन्ध-मोक्ष आदि तो इन्हीं पर निर्भर करते हैं । प्रथम अध्याय में यह स्पष्ट भी किया गया है कि हमें दुःखों से मुक्त होने के लिए क्रिया, परिणाम और अभिप्राय का स्वरूप समझना है। अतः बन्धमार्ग और मोक्षमार्ग पर इनका क्या प्रभाव पड़ता है – इस तथ्य की मीमांसा करना आवश्यक है। (1) क्रिया का प्रभाव :- पारमार्थिक दृष्टि से देखा जाए तो बाह्यक्रिया से बन्ध-मोक्ष, सुख-दुःख आदि कभी भी नहीं होते, अर्थात् जीव के लिए बाह्य-क्रिया का फल शून्य है, अकिञ्चित्कर है। बाह्य-क्रिया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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