Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray Author(s): Abhaykumar Jain Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 35
________________ क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन होने की अपेक्षा से अनेक स्थानों पर इन दोनों का अभेद कथन भी किया है 26 जाता समयसार में आत्मा को ज्ञान मात्र भी कहा गया है । इस अपेक्षा से भी श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र - ये सब ज्ञान अर्थात् आत्मा के ही परिणाम कहे जाते हैं। चतुर्थ गुणस्थान में श्रद्धा - ज्ञान की निर्मलता, बारहवे गुणस्थान में चारित्र की पूर्णता तथा तेरहवें गुणस्थान में ज्ञान - दर्शन - सुख - वीर्य की पूर्णता कही गई है। इससे श्रद्धा - ज्ञान - चारित्र आदि गुणों में कथञ्चित् भिन्नता सहज सिद्ध होती है। अभिप्राय, प्रतीति, मान्यता, श्रद्धान, रुचि आदि शब्द पर्यायवाची हैं। हमारे जीवन में अभिप्राय की क्या भूमिका है उसका परिणमन किस रूप में होता है ? इत्यादि अनेक बिन्दु गम्भीरता से विचारणीय हैं, क्योंकि क्रिया और परिणाम तो सरलता से समझ में आ जाते हैं, परन्तु 'अभिप्राय' शब्द का भाव स्पष्ट नहीं होता । निम्न उदाहरण से अभिप्राय शब्द का स्वरूप सरलता से समझा जा सकता है। किसी नाटक में लगभग 12 वर्ष का एक लड़का, लड़की का अभिनय करता है। इस अभिनय की सफलता के लिए वह लड़की जैसी वेशभूषा तो पहनता ही है। ‘मैं जा रहा हूँ' - ऐसा न कहकर 'मैं जा रही हूँ' - ऐसा बोलता है। इस किशोरावस्था में आवाज तो मादा अर्थात् लड़कियों जैसी ही है। अभिनय की सफलता के लिए वह इतना तन्मय होकर लड़कियों जैसे हाव-भाव करता है कि दर्शक उसे लड़की ही समझ लेते हैं। यदि दुर्भाग्य से उस समय आयु-बन्ध का काल हो तो उन परिणामों से उसे स्त्री-पर्याय प्राप्त होने योग्य कर्म भी बँध सकता है। यहाँ यह कहा जा सकता है कि उसके भाव स्त्रीपात्र का अभिनय करने के हैं, स्त्री जैसे होने के नहीं; परन्तु भावपूर्ण प्रस्तुति करने के लिए वैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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