Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 34
________________ क्रिया, परिणाम और अभिप्राय का जीवन में स्थान क्रिया वही की वही होती रहे और परिणाम उसे छोडकर अन्य विषय में लग जायें - ऐसा सहज सम्भव है। भोजन या पूजन की क्रिया जितनी देर चलती है उतनी देर में हजारों लाखों प्रकार के परिणाम हो सकते हैं। क्रिया के समान ही हम अपने प्रशंसनीय शुभ परिणामों का तो प्रचार करना चाहते हैं और लोकनिंद्य परिणामों को छुपाकर रखना चाहते हैं; यहाँ तक कि हम उनके अनुसार क्रिया करने से भी बचना चाहते हैं और यही हमारे हित में है । उपदेश में भी शुभ परिणाम की प्रेरणा दी जाती है, अशुभ क्रिया या अशुभ परिणामों को छोड़ने की प्ररेणा दी जाती है । यद्यपि उत्तमआर्जवधर्म के प्रकरण में परिणामों में सरलता रखने की प्रेरणा देते हुए कहा जाता है कि "मन में होय सो वचन उचरिये, वचन होय सो तनसों करिये " परन्तु ऐसी स्थिति तो वीतरागी मुनिराजों की होती है, विषय-कषाय में रचे-पचे गृहस्थों के लिए तो यही उचित है कि मन में होय सो मन में धरिये, वचन होय तनसों नहिं करिये। " 25 इसप्रकार यह स्पष्ट हुआ कि परिणाम, जीव के भाव हैं, जो क्रिया से निरपेक्ष रहकर अपनी तत्समय की योग्यतानुसार अपने स्वकाल में स्वयं उत्पन्न होते हैं। (3) अभिप्रायरूपी पर्दा : क्रिया और परिणाम के स्वरूप की विस्तृत चर्चा के बाद अभिप्राय की चर्चा अभीष्ट है। यह तो पहले कहा जा चुका है कि यहाँ अभिप्राय से आशय श्रद्धा गुण की पर्याय है जिसे प्रतीति या अभिनिवेश भी कहते हैं । यहाँ तो क्रिया और परिणाम के सन्दर्भ में अभिप्राय का स्वरूप विशेष स्पष्ट करना आवश्यक है। प्रश्न :- मोक्षमार्ग प्रकाशक पृष्ठ 91 पर जाने हुए पदार्थ की श्रद्धा को ज्ञान का कार्य कहा है, तो क्या श्रद्धा, ज्ञान गुण की पर्याय है ? उत्तर :- श्रद्धा और ज्ञान में मिथ्यापना और सम्यक्पना एक साथ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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