Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray Author(s): Abhaykumar Jain Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 36
________________ 27 क्रिया, परिणाम और अभिप्राय का जीवन में स्थान अभिनय में तन्मयता भी हो जाती है - इस अपेक्षा से यहाँ उसके स्त्री जैसे परिणाम कहे गए हैं। यहाँ यह बात विचारणीय है कि क्रिया और परिणामों के स्तर पर वह बालक स्त्रीत्व का अनुभव करता हुआ भी अपने को स्त्री मानता है या पुरुष ? वह अपने को पुरुष ही मानता है अन्यथा उसे उसके रमेश-सुरेश आदि नामों से सम्बोधित करने पर वह प्रत्युत्तर क्यों देता है ? ___ अब यह विचारणीय है कि “मैं पुरुष ही हूँ स्त्री नहीं" यह मान्यता या अनुभूति कहाँ चल रही है ? उसकी क्रियायें तो स्त्री जैसी हैं, भाव भी स्त्री जैसे हैं। अतः यही समाधान है कि उसकी पुरुष होने की अनुभूति या मान्यता, अभिप्राय अर्थात् श्रद्धा के परिणमन में ही चल रही है। यही वह अभिप्राय है, जिसकी दिशा क्रिया और परिणामों से भिन्न है। ___ यद्यपि अभिप्राय भी श्रद्धा गुण की पर्याय होने से उसे परिणाम भी कहा जाता है, परन्तु यहाँ ज्ञान और चारित्र गुण की परिणति से भिन्नता बताने के लिए उस परिणाम को ‘अभिप्राय'शब्द से सम्बोधित किया गया है। प्रश्न :- वह बालक अभिप्राय में अपने को पुरुष मानने के साथ-साथ ज्ञान में अपने को पुरुष जानता है ; तब यहाँ मात्र श्रद्धा की बात क्यों कही जा रही है ? उत्तर :- यह बात ठीक है कि जानना और मानना एक साथ होता है, परन्तु जानने में अन्य विषय भी ज्ञेय बनते हैं ; जबकि श्रद्धान में किसी एक विषय में ही अहं होता है। यहाँ प्रकरण भी अभिप्राय का स्वरूप स्पष्ट करने का है, अतः श्रद्धा की मुख्यता से कथन किया गया है। प्रश्न :- यदि श्रद्धा का विषय एक ही है तो “तत्त्वार्थ श्रद्धानम् सम्यग्दर्शनम्' में सातों तत्त्वों की प्रतीति कैसे कही जाती है ? उत्तर :- यह कथन ज्ञान की मुख्यता से किया जाता है। दृष्टिप्रधान कथन में श्रद्धा का विषय एक-अखण्ड-अभेद-सामान्य-नित्य-त्रिकाली Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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