Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray Author(s): Abhaykumar Jain Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 19
________________ 10 क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन मिथ्या अभिप्राय तथा सम्यग्दर्शन अर्थात् सम्यक् अभिप्राय समझना चाहिए। 'मिथ्या' और 'सम्यक्' अभिप्रायवाले जीवों को क्रमशः मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि कहा जाता है। यहाँ दृष्टि' शब्द भी 'अभिप्राय' के लिए प्रयुक्त होता है। मिथ्यादृष्टि अर्थात् विपरीत है दृष्टि' जिसकी, इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि अर्थात् यथार्थ है दृष्टि जिसकी। इसमें ज्ञान की विपरीतता या यथार्थता भी शामिल है। आध्यात्मिक सत्पुरुष पूज्य गुरूदेवश्री कानजीस्वामी तो अपने प्रवचन में सम्यग्दर्शन के लिए बहुधा 'दृष्टि' शब्द का ही प्रयोग करते हैं। उनका यह प्रयोग इतना अधिक प्रचलित हुआ कि मुमुक्षु समाज भी परस्पर चर्चा, प्रवचन, गोष्ठी आदि में सम्यग्दर्शन के लिए 'दृष्टि' शब्द का प्रयोग करने लगा। ‘दृष्टि का विषय' यह प्रकरण आज मुमुक्षु समाज का सर्वाधिक चर्चित और प्रिय विषय है। डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल ने 'दृष्टि का विषय पुस्तक लिखकर सम्यग्दर्शन का विषय ही स्पष्ट किया है। यह कथन 'दृष्टि प्रधान' है तथा यह कथन 'ज्ञान प्रधान' है- ऐसी चर्चा भी मुमुक्षुओं में बहुत चलती है। 'दृष्टि' और 'अभिप्राय' शब्द का प्रयोग अपेक्षा के अर्थ में भी किया जाता है। “द्रव्यदृष्टि से वस्तु नित्य है और पर्यायदृष्टि से वस्तु अनित्य है" इस कथन में द्रव्यदृष्टि अर्थात् 'द्रव्य की अपेक्षा' तथा पर्यायदृष्टि अर्थात् 'पर्याय की अपेक्षा' समझना चाहिए। यह कथन अमुक नय की दृष्टि या अपेक्षा से है, तथा यह कथन प्रमाणदृष्टि अर्थात् प्रमाण की अपेक्षा से है – ऐसे प्रयोग प्रवचनों में, चर्चाओं में तथा जिनागम में भी बहुत मिलते हैं। नयचक्रकार आचार्य माइल्ल धवल लिखते हैं : "जे णयदिट्टिविहूणा ताण ण वत्थू सहाव उवलद्धि" इस गाथा में नय अर्थात् विवक्षा या अपेक्षा के लिए नयदृष्टि शब्द का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114