Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

Previous | Next

Page 23
________________ 14 क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन उपर्युक्त तीनों मिथ्यादृष्टियों का संक्षिप्त स्वरूप निश्चयाभासी, व्यवहाराभासी और उभयाभासी का स्वरूप संक्षेप में माल और पेकिंग के उदाहरण से समझा जा सकता है। बाजार में जो भी वस्तु मिलती है वह किसी न किसी अन्य वस्तु के आवरण में लिपटी होती है। लौकिक भाषा में मूल वस्तु को 'माल' तथा उसके ऊपर के आवरण को 'पेकिंग' कहते हैं। वस्तु के सम्बन्ध में पेकिंग पर आवश्यक जानकारी भी लिखी होती है, अतः वह मूल वस्तु का परिचय भी देती है और उसे सुरक्षित भी रखती है। ___ माल जितना अधिक कीमती होता है, उसकी पेकिंग भी उसी अनुपात में अधिक कीमती होती है। शक्कर की खाली बोरी मात्र 10-15 रुपये की होती है, जबकि हीरे का हार जिस डिब्बे में रखा जाता है, वह डिब्बा ही 100-200 रुपये का होता है। मनुष्यों के द्वारा जो कृत्रिम उत्पादन किये जाते हैं, उनमें माल अलग बनता है तथा पेकिंग अलग बनती है और फिर उस पेकिंग में माल पेक किया जाता है। साबुन कहीं अलग बनती है तथा उस पर लपेटा जाने वाला कागज अलग बनता है। उस कागज पर माल का नाम और वजन आदि कहीं और लिखा जाता है, फिर उसे फैक्ट्री में ले जाकर उसमें साबुन पेक की जाती है। फिर उस कागज में लिपटी हुई साबुन को ही माल कहा जाता है और ऐसी दर्जनों साबुनों को लकड़ी या कागज आदि की पेटी में पुनः पेक किया जाता है। प्रकृति में होने वाले उत्पादन पेकिंग सहित ही उत्पन्न होते हैं। गेहूं, चावल आदि अनाज, आम सन्तरे केले आदि फल, छिलके सहित ही उत्पन्न होते हैं। जिस प्रकार प्रायः प्रत्येक माल किसी न किसी पेकिंग सहित ही होता है, उसी प्रकार आत्मा भी अनादिकाल से द्रव्यकर्म भावकर्म और नोकर्म की पेकिंग सहित है। उपयोग लक्षण वाला चैतन्य स्वरूप आत्मा 'माल' है तथा यह शरीर, आठ कर्म, तैजस शरीर और मोह-राग द्वेषादि भाव इसकी पेकिंग हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114