Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray Author(s): Abhaykumar Jain Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 31
________________ 22 क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन उप दिखाई नहीं देता। वह स्वयं को अवश्य दिखता है, क्योंकि वह अपने भीतर होता है और हम उसका वेदन करते हैं, उसे भोगते हैं। क्रिया और परिणाम में परस्पर सम्बन्ध :- परिणामों और क्रियाओं में प्रायः निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होता है। अतः जैसे हमारे परिणाम (भाव) होते हैं, प्रायः वैसी ही बाह्यक्रिया भी होती है। खाना-पीना, उठना-बैठना, बोलना, धन्धे-व्यापार आदि लौकिक क्रियायें तथा भक्ति, पूजा, दया, दान आदि धार्मिक क्रियायें करते समय प्रायः हमारे परिणाम भी वैसे ही होते हैं। उपर्युक्त निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध के कारण क्रिया देखकर परिणामों का अनुमान सहज ही हो जाता है। अतः क्रिया के माध्यम से परिणाम जाने जा सकते हैं। भोजन या पूजन करते हुए व्यक्ति को देखकर यही कहा जाएगा कि इस समय इस व्यक्ति के भाव भोजन करने के हैं अथवा पूजन करने के हैं। क्रिया और परिणाम की स्वतन्त्रता :- उपर्युक्त निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध होने पर भी बहुत से परिणाम और बहुत सी क्रियायें ऐसी भी होती हैं, जिनका आपस में कोई सम्बन्ध नहीं होता। जीवन में ऐसे प्रसंग भी बहुत बनते हैं कि जैसे भाव होते हैं वैसी क्रिया नहीं हो पाती और जैसी क्रिया होती है वैसे भाव नहीं होते। प्रश्न :- क्रिया कुछ और हो तथा परिणम कुछ और हों - ऐसा कब होता है ? उत्तर :- जैसे कार का कुशल ड्रायवर कार चलाते-चलाते कैसेट भी सुनता रहता है और हमसे बातें भी करता रहता है। उसके हाथ-पैर कार चलाने की क्रिया करते रहते हैं और यह क्रिया करते हुए भी उसके परिणाम या उपयोग (ध्यान) कैसेट सुनने में या हमसे बातें करने में भी लग जाता है। परन्तु जब वह कार चलाना सीख रहा था तब वह पूरा ध्यान (ज्ञान की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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