Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray Author(s): Abhaykumar Jain Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 17
________________ क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन (1) क्रिया :- सैद्धांतिक दृष्टि से देखा जाए तो प्रत्येक द्रव्य में एक पर्याय का व्यय होकर दूसरी पर्याय उत्पन्न होना अर्थात् पर्यायों का बदलना 'क्रिया' कहलाता है। कविवर पण्डित बनारसीदासजी के शब्दों में : कर्ता परिणामी दरब, कर्मरूप परिणाम । किरिया परजय की फिरनि, वस्तु एक त्रय नाम ॥' 'क्रिया' शब्द का उक्त अर्थ होने पर भी यहाँ यह अर्थ अभीष्ट नहीं है। पण्डित टोडरमलजी ने 'बाह्य क्रिया' शब्द का प्रयोग किया है, जिसे हम संक्षेप में 'क्रिया' शब्द से सम्बोधित करेंगे। अतः ‘क्रिया' शब्द से आशय लौकिक अथवा धार्मिक शारीरिक क्रियाओं से है। खाना-पीना, उठना बैठना, चलना, खड़े रहना, नहाना अथवा बोलना तथा इनसे विपरीत कार्य अर्थात् उपवास करना, मौन रहना, भक्ति, पूजा, दया, दान, व्रत, शील, संयम आदि सभी कार्य क्रिया' शब्द से वाच्य हैं और पुद्गल की पर्यायें हैं। (2) परिणाम :- यहाँ परिणाम' शब्द का अर्थ आत्मा में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष, पुण्य-पाप आदि चारित्र गुण के विकारीभावों अथवा निर्मल वीतरागीभावों से है। प्रायः ये परिणाम ही बाह्यक्रिया के निमित्त होते हैं। यद्यपि लोक में परिणाम' शब्द 'फल' अर्थात रिजल्ट के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है परन्तु यहाँ तो इस शब्द से जीव के भाव ही ग्राह्य हैं। शास्त्रों में षट् लेश्या के रूप में परिणामों का स्वरूप समझाया गया है। जिनवाणी में भी परिणाम' शब्द का प्रयोग बहुधा उक्त अर्थ में ही किया गया है। प्राचीन जैन कवियों द्वारा निम्न पंक्तियों में किये गये प्रयोगों से यह बात और अधिक स्पष्ट हो जाती है। "जीवनि के परिणामनि की अति विचित्रता देखो ज्ञानी" अथवा "निज परिणानि की संभाल में तातें गाफिल मत हो प्रानी" 1.नाटक समयसार : कर्ता कर्म द्वार छन्द-7 2. परिणाम निकलता है लेकिन मानो पावक में घी डाला' - युगलजीकृत देव-शास्त्र-गुरु पूजन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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