Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray Author(s): Abhaykumar Jain Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 14
________________ भूमिका सब शास्त्रन के नय धारी हिये, मत मण्डन खण्डन भेद लिये। वह साधन बार अनन्त कियो, तदपि कछु हाथ हजु न पर्यो ॥3॥ अब क्यों न विचारत है मन में, कछु और रहा उन साधन सें बिन सद्गुरु कोयन भेद लहे, मुख आगल है कि बात कहे ?॥4॥ उक्त विवेचन से निम्न तथ्य फलित होते हैं :(1) इस जीव ने अनन्त बार महाव्रतादिकरूप शुभक्रियाएं की हैं। (2) शुभक्रिया करते हुए इसके परिणाम शुभभावरूप हुए हैं और 11 अंग 9 पूर्व का क्षयोपशमज्ञान भी हुआ है। (3) शुभाचरण और शुभ परिणाम होने पर भी इसे आज तक मोक्षमार्ग की प्राप्ति नहीं हुई। अतः यह सहज ही प्रश्न उठता है कि शुभाचरण और शुभभाव होने पर भी आज तक मोक्षमार्ग क्यों नहीं हुआ ? इस प्रश्न का उत्तर खोजना ही प्रस्तुत अनुशीलन का एकमात्र उद्देश्य है। उक्त पंक्तियों में भी श्रीमद्जी ने विचार करने की प्रेरणा देते हुए कहा है:- “अब क्यों न विचारत है मन में कछु और रहा उन साधन सें।" यहाँ हम मात्र इस तथ्य की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं कि उक्त उल्लेखों के अनुसार शुभक्रिया और शुभपरिणाम होने पर भी मोक्षमार्ग नहीं हुआ तो अब तीसरा कौन-सा कारण शेष रह गया, जिसके कारण मोक्षमार्ग नही हो पाया ? अतः सुधी पाठकों से विनम्र अनुरोध है कि इस प्रकरण को द्रव्यलिंगी मुनि की निन्दा-प्रशंसा या शुभभावों के विरोध या समर्थन के सन्दर्भ में न देखकर मात्र क्रिया, परिणाम और अभिप्राय के अनुशीलन के सन्दर्भ में ही ग्रहण करें; तभी आप इस विषय को हृदयंगम करके जिनागम के मार्मिक एवं सर्वाधिक प्रयोजनभूत रहस्य से परिचित हो सकेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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