Book Title: Kriya Parinam aur Abhipray
Author(s): Abhaykumar Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 13
________________ क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन मिथ्यात्व और अज्ञान दशा में भी यह जीव मन्द कषायों के कितने उत्कृष्ट बिन्दु तक पहुँच जाता है - इसका उल्लेख करते हुए आचार्यकल्प पण्डितप्रवर टोडरमलजी लिखते हैं : द्रव्यलिंगी मुनि अन्तिम ग्रैवेयक तक जाते हैं, और पञ्च परावर्तनों में इकतीस सागर पर्यन्त देवायु की प्राप्ति अनन्त बार होना लिखा है; सो ऐसे उच्चपद तो तभी प्राप्त करे, जब अन्तरंग परिणाम पूर्वक महाव्रत पाले, महामन्द कषायी हो, इसलोक-परलोक के भोगादिक की चाह न हो; केवल धर्मबुद्धि से मोक्षाभिलाषी हुआ साधन साधे। इसलिए द्रव्यलिंगी के स्थूल तो अन्यथापना है नहीं, सूक्ष्म अन्यथापना है; सो सम्यग्दृष्टि को भासित होता है।" सम्यज्ञान की महिमा के प्रकरण में बाह्याचरण और शुभ परिणामों मात्र की निरर्थकता बताते हुए कविवर पण्डित दौलतरामजी छहढाला की चतुर्थ ढाल के पाँचवे छन्द में लिखते हैं : कोटि जन्म तप तपैं ज्ञान बिन कर्म झरै जे, ज्ञानी के छिन माहिं त्रिगुप्ति तैं सहज टरै ते। मुनिव्रत धार अनन्तबार ग्रीवक उपजायो, पैनिज आतमज्ञान बिना सुख लेश न पायो । इसी आशय के मार्मिक विचार श्रीमद् राजचन्द्रजी ने निम्न पॅक्तियों में व्यक्त किये हैं : यम-नियम संजम आप कियो, पुनित्याग विराग अथागलह्यो। वनवास लियो मुख मौन रह्यो, दृढ़ आसन पद्म लगाय दिया॥1॥ मन पौन निरोध स्वबोध कियो, हठजोग प्रयोग सु तार भयो। जप भेद जपे तप त्योंहि तपे, उरसेंहि उदासी लहि सबपै ॥2॥ 1. मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ-243 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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