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बीकानेर में था। मैं उनका लघु शिष्य था। जीवन में बालसुलभ चाञ्चल्य था। पूज्य गुरुदेव की आज्ञा प्राप्त कर प्रसिद्ध साहित्यमनीषी और इतिहासविद् श्री अगरचन्दजी नाहटा और श्री भंवरलालजी नाहटा (जिनको मैं आगे नाहटा बन्धुओं के नाम से उल्लेख करूँगा) ने मेरे जीवन में साहित्य संस्कारों का बीज वपन किया। उन्होंने हस्तलिखित ग्रन्थों की लिपि पढ़ने का, मूर्तियों के लेखों की प्राचीन लिपि पढ़ने का, हस्तलिखित ग्रन्थों की सूची बनाने का, इतस्ततः बिखरे हुए हस्तलिखित पत्रों को लिपि, कागज इत्यादि के आधार पर निर्णय करने का और खरतरगच्छ के प्रति अटूट प्रेम जागृत करने का प्रयत्न किया। मैंने भी उस समय बीकानेर के चिन्तामणि मन्दिर के भण्डारस्थ मूर्तियों के लेख लिखने में नाहटा बन्धुओं का सहयोग किया। अभय जैन ग्रन्थालय के लगभग ४००० ग्रन्थों का सूचीपत्र तैयार किया। नाहटा बन्धुओं द्वारा लिखित खरतरगच्छीय साहित्य की नोट बुक की प्रतिलिपि भी की, जो आज भी मेरे पास विद्यमान है।
__ वे संस्कार के बीज समय-समय पर अंकुरित, पुष्पित और पल्लवित होते रहे। विहार करते हुए प्रत्येक मन्दिरस्थ मूर्तियों के लेख लेना, हस्तलिखित ज्ञान भण्डारों का अवलोकन करना, नये-नये ग्रन्थों को अपनी सूची में अंकित करना, खरतरगच्छ के इतिहास की सामग्री एकत्रित करना, खरतरगच्छ आचार्यों द्वारा निर्मित ग्रन्थों की आद्यन्त प्रशस्तियाँ लिखना जीवन का अङ्ग बन गया। यह प्रयत्न वर्षों तक क्रमबद्ध रहा। अध्ययन के कारण कई बार विघ्न भी हुआ और इस कार्य में शिथिलता भी आई किन्तु नाहटा बन्धु समय-समय पर मुझे प्रोत्साहित करते रहे, वाञ्छित सामग्री भेजते रहे और प्रभाव डालकर मुझसे लिखवाते रहे। सन् १९४७-४८ में मेरी कुछ लघु पुस्तिकाएं प्रकाशित हुई जिनकी भूमिका भी इन्ही बन्धुओं ने लिखी। सन् १९५० में मैंने सटीक नेमिदूतम् का सम्पादन किया जो कि संयोग से राजस्थान विश्व विद्यालय के संस्कृत एम.ए के पाठ्यक्रम में इसका चयन हो गया। श्रीवल्लभोपाध्याय रचित सहस्रदल कमल गर्भित अरजिनस्तव स्वोपज्ञ टीका सहित का सम्पादन किया। इस सम्पादन में मुझे आगम प्रभाकर स्वर्गीय मुनि पुण्यविजयजी महाराज का पूर्ण सहयोग प्राप्त हुआ। नाहटा बन्धुओं के सतत प्रयत्न से सन् १९५६ में दादा जिनदत्तसूरि अष्टम शताब्दी समारोह, अजमेर में खरतरगच्छ का इतिहास प्रथम खण्ड का विमोचन भी हुआ। आचार्य जिनवल्लभसूरि पर वल्लभ भारती के नाम से शोध प्रबन्ध लिखकर साहित्य महोपाध्याय उपाधि भी प्राप्त की।
नाहटा बन्धुओं की सतत् प्रेरणा और पूर्ण सहयोग के कारण ही सन् १९७१ में मणिधारी श्रीजिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दी स्मृति ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड के रूप में खरतरगच्छ साहित्य सूची का ७२ पृष्ठों में प्रकाशन हुआ। यह साहित्य सूची प्रारम्भिक भूमिका मात्र थी। इसमें नाहटा बन्धुओं के साहित्य सूची नोट-बुक और मेरी नोट-बुक का सम्मिश्रण था। सन् १९८४ में खरतरगच्छ प्रतिष्ठा लेखों का संग्रह करना प्रारम्भ किया था किन्तु वह भी बीच में छूट गया।३० वर्षों के मध्यकाल में खरतरगच्छ सम्बन्धित कुछ साहित्य मेरे द्वारा सम्पादित होकर अवश्य ही प्रकाशित हुआ, उनमें से
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