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कि जिनपतिसूरि की आज्ञा को सिर पर धारण करता था उसने अपने पूर्वज मरुकोट निवासी पार्श्वनाग की परम्परा देते हुए अपनी वंश परम्परा दी है। (द्रष्टव्य-जैनपुस्तकप्रशस्ति संग्रह, प्रथम भाग, प्रशस्ति संख्या - ८)
३. १४वीं शताब्दी में लिखित उपदेशमालादि प्रकरण पुस्तिका की प्रशस्ति में श्रावक आभा ने अपने पूर्वज उकेश वंशीय लोहट से प्रारम्भ की है और स्वयं की गुरु परम्परा में जिनपद्मसूरि का नामोल्लेख किया है। (द्रष्टव्य-जैनपुस्तकप्रशस्ति संग्रह, प्रथम भाग, प्रशस्ति संख्या - ६७)
४. १४वीं शताब्दी में लिखित श्रावकधर्मप्रकरणवृत्ति की प्रशस्ति में उकेश वंशीय सा. ब्रह्मदेव ने अपने पूर्वज सलक्षण से प्रारम्भ की है और अपनी वंश परम्परा को देते हुए गुरु जिनपतिसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि का उल्लेख किया है। (द्रष्टव्य-जैनपुस्तकप्रशस्ति संग्रह, प्रथम भाग, प्रशस्ति संख्या - ९१)
५.१४वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में लिखित अभयकुमारचरित्रादि-पुस्तक पंचक की प्रशस्ति में उकेशवंशीय श्रावक खेतु ने अपने पूर्वज वीरदेव की वंश परम्परा देते हुए स्वयं की परम्परा का उल्लेख किया है और उनके विशिष्ट धर्मकलापों का भी उल्लेख किया है। (द्रष्टव्य-जैनपुस्तकप्रशस्ति संग्रह, प्रथम भाग, प्रशस्ति संख्या - ९५)
६. कांकरिया गोत्रीय सा. मोहन ने उत्तराध्यन सूत्र की प्रति खरीदी थी और जिनपद्मसूरि के पट्टधर जिनलब्धिसूरि को भेंट प्रदान की थी। (द्रष्टव्य-जैनपुस्तकप्रशस्ति संग्रह, प्रथम भाग, प्रशस्ति संख्या - १०१)
७. संवत् १२९५ की कर्मविपाक की टीका की प्रशस्ति में लिखा है:- चित्रकूट निवासी उकेशवंशीय आशा पुत्र सा. सल्हाक ने यह ग्रन्थ लिखवाया जो कि जिनेश्वरसूरि द्वितीय का परम भक्त था। (द्रष्टव्य-जैनपुस्तकप्रशस्ति संग्रह, प्रथम भाग, प्रशस्ति संख्या - १७४)
मुनि पुण्यविजयजी सम्पादित जेसलमेर भण्डार के सूची पत्र में भी इस प्रकार की विस्तृत प्रशस्तियों में कई भक्त श्रावकों के उल्लेख मिलते है:
८. संवत् १२०४ में लिखित भगवतीसूत्र वृत्ति में डुसाउसुश्रावक ने जिनपद्मसूरि के उपदेश से यह प्रति लिखवाई। (क्रमांक - १५) इसी प्रकार ग्रन्थ क्रमाङ्क - २२, २८, ३१, ५०, ५८,७६, ८५, ११२, ११४,११९, १४९, २११, २१७, २२५, २३०, २३५, २३९, २५०, २५६, २७०, २७२, २८१, २८९ आदि की रचना और लेखन प्रशस्तियाँ पठनीय हैं। इन प्रशस्तियों से उन श्रावकों के वंशपरम्परा और धार्मिक कलापों का वर्णन प्राप्त होता है जो कि आज के जीवन में भी श्लाघनीय और अनुकरणीय है।
प्रकाशन का इतिहास विक्रम संवत् २००० में मेरे परमाराध्य सद्गुरु श्रीजिनमणिसागरसूरि जी महाराज का चातुर्मास
प्राक्कथन
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