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विषयानुक्रमणिका का घातस्वरूपार्थ निर्देश, शर्ववर्मा के द्वारा कृत्प्रत्ययों की रचना का अभाव, अभिधान का औचित्य, लोक-व्याकरण में निमित्त-नैमित्तिक का पौर्वापर्य, दो प्रकार की नित्यता= परमार्थनित्यता, व्यवहारनित्यता तथा लोकव्यवहार में विद्वान् की प्रसिद्धि ] पञ्चमो गुणपादः (सूत्रसंख्या-४८)
१५१-२३० १०. नाम्यन्त धातु-नाम्यन्त विकरण आदि को गुणादेश १५१-६०
|नाम्यन्त धातु-नाम्यन्त विकरण-उपधासंज्ञक लघु नामी वर्ण-नाम्युपध धातु-कृमिद्धातु-नामिसंज्ञक इवर्ण-उवर्ण-ऋवर्ण को गुणादेश, विस्पष्टार्थ-वक्रोक्त्यर्थ-नियमप्रतिपत्त्यर्थनियमार्थ-सुखपाठार्थ-वैचित्र्यार्थ अनेक विषयों का उपस्थापन, योगविभाग की अपेक्षा अक्षराधिक्य की ग्राह्यता तथा एके-केचित् -सूत्रकार-शर्ववर्मा आदि आचार्यों के विविध अभिमत ] ११. विविध धातुओं में गुणादेश का निषेध
१६०-९५ | णानुबन्ध-चेक्रीयित प्रत्ययों के परे रहते नाम्यन्त-नाम्युपध धातु, उपधासंज्ञकनामिसंज्ञक वर्ण-ऋकारान्त धातु-भृ धातु-सु धातु-दीधी -वीङ् धातु-रुद-विद-मुषधातुअनिट् धातु-धातु-विकरण-तुदादिगणपठित धातु -विद धातु-कुटादिगणपठित धातु-ओ विजी धातु को गुणादेश का निषेध, सुखार्थ-स्पष्टार्थ-नियमार्थ-प्रतिपत्तिगौरवनिरासार्थज्ञापनार्थ-वैचित्र्यार्थ-असन्देहार्थ-लाघवार्थ-लापार्थ-अगुणार्थ विविध कार्यों की सिद्धि, लौकिक संस्कृत में चेक्रायितलुगन्त की प्रयोगानुसार मान्यता, पूर्वाचार्यकृत संज्ञा का आश्रयण, पण्डित-वासुदेवसेन-केचित्-कश्चित्-रमापति-दुर्ग-अन्य-हेमकर-शर्ववर्मा आदि आचार्यों के विविध अभिमत, शर्ववर्मा के अनुसार 'दीर्धाङ् -वेवीङ ' धातुओं की लोक में मान्यता"शर्ववर्मणस्तु वचनाद् भाषायामप्यवसीयते, न ह्यसौ छान्दसान् व्युत्पादयति शब्दानिति''। कुछ विद्वानों के अनुसार दीधीङ् -वाङ् धातुओं का छान्दसत्व, एक उदाहरण के लिए सूत्र बनाने का औचित्य नहीं - "न ह्येकमुदाहरणं प्रति योगारम्भं प्रयोजयति' । स्पष्टावबोध के लिए पृथक् सूत्र बनाना, आर्षप्रयोग का औचित्य तथा 'पृच्छनीयम्' में रूढि के अनुसार सम्प्रसारण की मान्यता |
१२. इकारादेश-नकारागम-नकारागमनिषेधादि १९५-२३०
| स्था-दाधातुगत आकार को इकारादेश, मुचादि धातुओं में नकारागम, रधधातु में नकारागम का निषेध, हि को धि आदेश, शाम को शा आदेश, नलोप-शीङ् धातु में रि-आगम, अट् प्रत्यय को औकारादेश, ऋकार को ईर् आदेश, ऋकार को उर् आदेश,