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।। श्रीः ।। विषयानुक्रमणिका [आख्यातप्रकरणम्, ४-८ पादाः]
पृ० सं० चतुर्थः सम्प्रसारणपादः (सूत्रसंख्या-९२) १-१५० १. सम्प्रसारणाधिकार
१-४ [आचार्य शर्ववर्मा ने अन्तस्थासंज्ञक वर्गों के सम्प्रसारण का अधिकार इस पाद के प्रारम्भ में उपस्थापित करके विधि-निषेधविषयक विविध सूत्र बनाए हैं । अन्तस्थासंज्ञक 'य्-र्-ल्-व्' इन अर्धमात्रिक वर्गों के स्थान में एकमात्रिक 'इ-उ-ऋ-ल' वर्गों के होने से सम्प्रसारण की अन्वर्थता सिद्ध होने के कारण कातन्त्रकार ने इसके लिए संज्ञासूत्र बनाने की आवश्यकता न समझकर अधिकार के रूप में प्रस्तुत किया है । काशकृत्स्नधातुव्याख्यान, निरुक्त, दुर्गभाष्य, गोपथब्राह्मण आदि में इसका उल्लेख, व्याख्याकारों की छह विशेषताएँ ] २. अगुणादि प्रत्ययों में सम्प्रसारण का विधान
५-१४ [अगुण प्रत्ययों में ग्रहादिधातुगत, यण्-अगुण-परोक्षा-आशीविभक्तियों में स्वपादिधातुगत तथा अभ्यासस्थ स्वपादिधातुगत अन्तस्थासंज्ञक वर्गों का सम्प्रसारण, व्याख्याकारों द्वारा तिप् का निर्देश सुखार्थ, औणादिकों की अव्युत्पन्नता-व्युत्पन्नता, सूत्र का पृथग् विधान वैचित्र्यार्थ तथा सम्प्रदाय की मान्यता ] ३. सम्प्रसारण का निषेध
१५-१७ [ 'वेञ् तन्तुसन्ताने' तथा 'टु ओ श्वि गतिवृद्धयोः' धातुओं में सम्प्रसारण का निषेध, चकार का अनुक्तसमुच्चयार्थ उपादान |
४. चेक्रीयित आदि प्रत्ययनिमित्तक स्वपादि धातुओं का सम्प्रसारण १७-२६
[चेक्रीयित-चण्-सन्-इन् प्रत्ययों के परवर्ती होने पर स्वपादि धातुओं का सम्प्रसारण, चेक्रीयित के लिए पाणिनि द्वारा यङ्-प्रत्यय का व्यवहार, चाय -प्याय् धातुओं को क्रमश: 'कि-पि' आदेश, इक्-अ-श्तिप्प्रत्ययान्त धातुनिर्देश |