Book Title: Kasaypahudam Part 06
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Digambar Sangh
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ १५. आदेसेण णेरइएसु ओघं । एवं सत्तमाए पुढवीए । णेरइयाणं पढमाए
सूक्ष्मता नहीं पाई जाती । फिर भी विग्रहगतिमें वर्तमान त्रसोंको सूक्ष्म नामकर्मका उदय न होते हुए भी सूक्ष्म माना जाता है, क्योंकि वे अनन्तानन्त विनसोपचयोंसे उपचित औदारिक नोकर्मस्कन्धोंसे विनिर्मित देहसे रहित होते हैं। इसीलिये यहाँ त्रस पर्यायके साथ बादर शब्दका प्रयोग किया है । बादर त्रस पर्याप्तकोंमें भ्रमण करते हुए भी पर्याप्तके भव बहुत धारण करता है और अपर्याप्तके भव कम धारण करता है आदि बातें लगा लेनी चाहिये जैसे कि बादर पृथिवीकायिकोंमें भ्रमण करते हुए बतलाई थीं। इस प्रकार बादर त्रस पर्याप्तकोंमें भ्रमण करके अन्तिम भवमें सातवें नरकके नारकियोंमें उत्पन्न हुआ। नरकमें उत्कृष्ट संक्श होनेसे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, इसलिये अन्तिम भवमें नरकमें उत्पन्न कराया है। शायद कहा जाय कि यदि ऐसा है तो बारम्बार नरकमें ही उत्पन्न क्यों नहीं कराया सो इसका उत्तर यह है कि वह जीव नरकमें ही बारम्बार उत्पन्न होता है। किन्तु लगातार नरकमें उत्पन्न होना संभव न होनेसे उसे अन्यत्र उत्पन्न कराया गया है। नरकमें भी उत्पन्न होता हुओ सातवें नरकमें ही बहुत बार उत्पन्न होता है, क्योंकि अन्य नरकोंमें तीव्र संक्लेश और इतनी लम्बी आयु वगैरह नहीं होती । आशय यह है कि बादर त्रसकायकी स्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक दो हजार सागर है । इतने काल तक बादर त्रसपर्यायमें भ्रमण करते हुए जितनी बार सातवें नरकमें जानेमें समर्थ होता है उतनी बार जाकर जब अन्तिम बार सातवें नरकमें जन्म लेता है तो उस अन्तिम भवके अन्तिम समयमें उस जीवके मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय होता है, अतः वह जीव उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी है। सारांश यह है कि उत्कृष्ट प्रदेशसंचयके लिए छ वस्तुएँ आवश्यक हैं-एक तो लम्बी भवस्थिति, दूसरे लम्बी आय, तीसरे योगको उत्कृष्टता, चौथे उत्कृष्ट संक्लेश, पाँचवें उत्कर्षण और छठा अपकर्षण । लम्बी भवस्थिति और लम्बी आयुके होनेसे विना किसी विच्छेदके बहुत कर्मपुद्गलोंका ग्रहण होता रहता है, अन्यथा निरन्तर उत्पन्न होने और मरने पर बहुतसे कर्मपुद्गलोंकी निर्जरा हो जाती है। तथा उत्कृष्ट योगस्थानके रहने पर बहुत कर्मपरमाणुओंका बन्ध होता है और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामके होने पर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है जिससे कर्मनिषकोंकी जल्दी निर्जरा नहीं होती। इसी तरह उत्कर्षणके द्वारा नीचेके निषेकोंमें स्थित बहुतसे परमाणुओंकी स्थितिको बढ़ाकर ऊपरके निषेकोंमें उनका निक्षेपण करता है और अपकर्षणके द्वारा ऊपरके निषेकोंमें स्थित थोड़े परमाणुओंको स्थितिको घटाकर नीचेके निषेकोंमें उनका स्थापन करता है । अनुभागविभक्तिमें यह बतला ही आये हैं कि निषेक रचनामें नीचे नीचे परमाणुओंकी संख्या अधिक होती है और ऊपर ऊपर वह कमती होती जाती है। अतः उत्कर्षण अपकर्षणके द्वारा नीचे तो थोड़े परमाणुओंका निक्षेपण होता है, किन्तु ऊपर अधिक परमाणुओंका निक्षेपण करता है और ऐसा होनेसे प्रदेशसंचयमें वृद्धि हो होती है। इन्हीं बातोंको लक्ष्यमें रखकर उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके स्वामीका कथन किया है। बादर पृथिवीकायिकोंमें ही क्यों उत्पन्न कराया गया आदि प्रश्नोंका समाधान आगे उत्तरप्रदेशविभक्तिमें ग्रन्थकार स्वयं करेंगे, अतः यहाँ नहीं लिखा है। इस प्रकार यद्यपि अन्य सब ग्रन्थोंमें अन्तिम समयमें ही उत्कृष्ट प्रदेशसंचय बतलाया गया है, किन्तु आगे जयधवलाकारने यह बतलाया है कि किसी किसी उच्चारणामें नरकसम्बन्धी चरिम समयसे नीचे अन्तर्मुहूर्तकाल उतरकर उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामित्व होता है, क्योंकि आयुके बंधकालमें मोहनीयका क्षय होनेसे बादको जो संचय होता है वह बहुत नहीं होता।
$ १५. आदेशसे नारकियोंमें ओघकी तरह जानना चाहिए। इसी प्रकार सातवीं
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