Book Title: Karmaprakrutigatmaupashamanakaranam
Author(s): Shivsharmsuri, Gunratnasuri
Publisher: Bharatiya Prachyatattva Prakashan Samiti
View full book text
________________
१८ ]
प्रस्तावना क्रमशः अन्तिमसमयवर्ती प्रथम जीव की जघन्यविशुद्धि अनंतगुण । तत्पश्चात् द्वितीय जीव की उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुण, उससे अगले ( Next) समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुण इस प्रकार द्वितीय जीव की यावत् अन्तिम समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुण ।। ___ अपूर्वकरण के प्रथमसमय की जघन्यविशुद्धि यथाप्रवृत्तकरण के समय की उत्कृष्ट विशुद्धि से
अनंतगुण उमसे प्रथम समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुण, उससे द्वितीय समय की जघन्य विशुद्धि अनंतगुण । इस प्रकार क्रमशः यथावत् अपूर्वकरण की चरम समय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनंतगुण । अपूर्वकरण के प्रथम समय से स्थितिघात, रसघात, स्थितिबन्ध गुणश्रेणि ये चारों अधिक र युगपत् प्रारम्भ होते है।
स्थितिघानमें उत्कृष्ट से अनेक सागरोषम प्रमाण स्थिति कण्डक को छेदता है व जघन्य से पल्योपमसंख्येय भाग प्रमाग स्थितिकण्डक को छेदता है । अपूर्वकरण के प्रथम स्थितिघात में अशुभकर्म के अनंतानुभागों को क्षय करता है । पुनः शेष अनुभाग के अनंतानभागों का क्षय करता है । इस प्रकार एक स्थितिघात में हजारों रसधात होते हैं । हजारों स्थितिघातों से अपूर्व करण पूर्ण होता है। अपूर्वकरण के प्रारम्भ में जितनी स्थिति सत्ता है उसी से संन्या गुणहीन चरम समय में होती है। अपूर्वकरण के प्रथम समय में यथाप्रवृत्तकरण चरमसमय से पन्योपमसंख्येयभागहीन अपूर्व स्थिति बन्ध होता है। इस प्रकार चरमसमय तक समझना । स्थितिबन्ध और स्थितिघात युगपत् प्रारंभ हाते हैं और युगपन समाप्त होते हैं । ___अब गुणश्रेणि का निरूपण इस प्रकार समझिये-उपर की स्थिति के पुद्गलों को ग्रहण करके उदयवती प्रकृति के पुद्गलों को उदयसमय मैं व अनुदयवती प्रकृति के पुद्गलों का उदयावलिका के उपर प्रथम समय में थोडा प्रक्षेप करता है द्वितीय समय में अमख्येय गुण इस प्रकार यावत् अन्तर्मुहुर्त । गुग श्रेणि अपूर्वकरणाद्धा अनिवृ त्तकरणाद्धा से विशेषाधिक होती हैं। प्रथमसमय में जितनी गुणश्रेणिकाल की लंबाई है वह प्रतिसमय अनुभव से हस्व होती है अतः शेष स्थिति में प्रक्षेप होता है। ____ अनिवृत्तिकरणाद्धा की यहां प्ररूपणा इस प्रकार है--अपूर्वकरण में प्रवृत्त च रों अपूर्व पदार्थ यहां मी युगपत् प्रवृत होते हैं । अनिवृत्तिकग्ण सभी जीवों का समान काल और समान विशुद्धि वाला होता है । इसलिए इस करण का अनिवृत्तिकरण नाम सार्थक है । अनिवृत्तिकरणाद्धा का एक संख्यातवां भाग बाकि रहने पर अन्तम हर्न प्रमाण स्थिति नीचे छोडकर जीव मिथ्यात्व का अन्तकरण करता है। इसका प्रमाण किश्चिन्यूनाभिनव-स्थिनिबन्धाद्धा के समान है। अन्तरकरणप्रारम्भकाल के समय में मिथ्यात्व का जघन्य स्थितिवन्ध प्रारंभ होता है वह स्थिनिबन्ध और अन्तरकरणकाल युगपत्समाप्त होते है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org